पंचायत, गुल्लक, एस्पिरेंट्स पर दर्शकों ने क्यों लुटाया इतना प्यार… बता रहे हैं डायरेक्टर अपूर्व कार्की

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पंचायत-एक पॉपुलर सीरीज

अगर आप आज के सिनेमा का विश्लेषण करेंगे या उसे व्याख्यायित करने की कोशिश करेंगे तो आपको एक बात निश्चित तौर पर महसूस होगी कि आज के सिनेमा की कमान युवा फिल्मकारों, युवा लेखकों और युवा अभिनेताओं के हाथों में है। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मौजूदा सिनेमा की ऑडिएंस बहुत इंफॉर्मेटिव है। उसके पास सूचनाओं का भंडार है। उसके पास हर तरह की सूचना और हर तरह का ज्ञान है। उसका सबसे ज्यादा जोर अच्छी कहानी पर है। वह अच्छे टीवी शोज और अच्छी वेब सीरीज देखती है और निरंतर देखना चाहती है।

इसी का नतीजा है कि टीवीएफ द्वारा निर्मित और मेरे द्वारा निर्देशित वेब सीरीज-एस्पिरेंट्स का दर्शकों का बेहद प्यार मिला। इसी तरह वेब सीरीज पंचायत और गुल्लक का दर्शकों ने दिल खोलकर स्वागत किया। तो कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि यंगस्टर अब स्टोरी पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं। स्क्रीन प्ले पर ध्यान दे रहे हैं। जब तक स्क्रीन प्ले ठीक नहीं होता वह फिल्म नहीं बनाएगा। उसकी समझ में यह बात अच्छी तरह से आ गई है कि फिल्म का सबसे बड़ा हीरो कहानी और स्क्रिप्ट है।

मेरी समझ से अब तीन तरह की कैटेगरी के सिनेमा हैं। तीनों तरह की कैटेगरी का सिनेमा बनाने वाले फिल्मकारों में एक बात कॉमन है कि अपने सिनेमा के जरिए वे अपनी फिल्म की कहानी से दर्शकों को कैसे रिलेट कर पाएं या कैसे उसे अपने सिनेमा के सब्जेक्ट से कनेक्ट करें। अगर कनेक्टिविटी नहीं होगी तो फिल्म नहीं चलेगी। एक तरफ आरआरआर जैसी फिल्म है तो दूसरी तरफ केजीएफ जैसी खूबसूरत फिल्म है। कमर्शियल कैटेगरी की फिल्म है, पर दर्शकों का मन मोहती है। एक कैटेगरी नॉस्टैल्जिक कर देने वाले सिनेमा की है। यानी फिल्मकार की कोई फिल्म ऐसी हो जिसका सब्जेक्ट दर्शकों के दिलो-दिमाग में अतीतराग जगाए। तो उसमें अतीतराग जगाने की क्षमता हो तो वह चलेगी। तीसरी कैटेगरी में सीरियस सब्जेक्ट्स वाली फिल्में हो सकती हैं। जो किसी ऐसे ज्वलंत मुद्दे को लेकर चले जो एकदम हार्ट हिटिंग हो। सभी तरह के दर्शकों के दिलो-दिमाग को झिंझोड़कर रख दे। ऐसी फिल्में अतीत में भी बनी हैं और आज भी बन रही हैं। लेकिन यह कहना या ऐसी धारणा रखना कि हर फिल्म सीरियस हो ठीक नहीं है। 

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एस्पिरेंट्स वेबसीरीज, डायरेक्टर अपूर्व कार्की

फिल्ममेकर को हर तरह की फिल्म बनाने की आजादी होनी चाहिए। दर्शकों को मनोरंजक फिल्मों की भी जरुरत है। दर्शकों में 11 करोड़ की केजीएफ देखने वाले लोग भी है और उन्हीं दर्शकों में करोड़ों की लागत से बनने वाली एनिमल देखने वाले लोग भी हैं। उस किरदार की अपनी मारेलिटी है। आप यह क्यों नहीं सोचते कि जहां इस तरह की फिल्में देखने वाला दर्शक वर्ग है वहीं बारहवीं फेल और जोरम देखने वाला दर्शक वर्ग भी तो है। यह तो हमेशा रहेगा ही। कुछ लोग बहलावे वाला सिनेमा देखने वाले होंगे तो कुछ लोग सीरियस किस्म का सिनेमा देखने वाले लोग होंगे। सिनेमा के ट्रेंड में हर दौर में बदलाव आता रहता है।

एक दौर एक्शन फिल्मों वाला था। उस दौर में दबंग जैसी फिल्में चल रही थीं। उसी एक्शन वाले दौर में आयुष्मान खुराना की बधाई हो जैसी फिल्म ने ट्रेंड बदलकर रख दिया। फिल्म 150 करोड़ की कमाई कर गई। उसके बाद फैमिली ड्रामा वाला दौर शुरू हो गया। पांच साल तक पारिवारिक फिल्में बनने लगीं। अब भी ऐसा ही होगा। वैसे भी बड़ी स्क्रीन हीरो देखने के लिए बनी थी। हार्ट हिटिंग फिल्में टीवी पर देखी जा रही थीं।

उस एक्शन वाले दौर में दीवार जैसी फिल्म भी कितनी बड़ी हिट थी। जरा सोचिए क्या था उस फिल्म में सिवाय एक्शन के। लेकिन एक दर्शक वर्ग था उस फिल्म को देखने वाला। यानी एक स्कोप था उस फिल्म का। बहुत अच्छी फिल्म का स्कोप भी है समाज में। बाद में थ्री इडियट आई। एकदम साफ-सुथरी फिल्म। कितनी चली वह फिल्म।

जहां तक यूथ के सिनेमा में इन्वॉल्वमेंट का सवाल है तो आज नौजवान राइटर हैं। जहां तक अच्छे राइटर्स की कमी का सवाल है तो वह तो शुरू से रही है फिल्म इंडस्ट्री में। डिजिटल वर्ल्ड के राइटर अच्छे हैं। आप जरा सोचिए इंजीनियरिंग के कितने इंस्टीट्यूट खुल गए हैं देश में। फिल्म के लिए सिर्फ एक सरकारी इंस्टीट्यूट है देश में, पुणे में भारतीय फिल्म एंड टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान। दिल्ली में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा है। तो एक अच्छा राइटर बनने में ही दस-बारह साल लग जाते हैं। फिर कहानी के हिसाब से डॉयलाग लिखे जाएं इसमें भी बाधा है। आधे से ज्यादा लोग हिंदी नहीं बोलते फिल्म इंडस्ट्री में पर फिल्में हिंदी में कर रहे हैं।

आप सिर्फ एक बंदा काफी है देखेंगे तो उसका नायक शुद्ध हिंदी में बोलता है। हिंदी में डॉयलाग लिखे भी होने चाहिए तभी तो फिल्म का नायक या अन्य कलाकार हिंदी में डॉयलाग बोलेंगे। मुझे पता है फिल्मों में कितने अच्छे राइटर हैं। फिल्मों में कितने पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं, तो इस सवाल के जवाब में यही कहूंगा थिएटर से जो लोग आए हैं वे पढ़ते-लिखते हैं। मुझे लगता है अब गोविन्द निहलानी वाला पीरियड आ गया है। कॉमेडी और सीरियस हर तरह की फिल्में बन रही हैं।

आज के दौर में ओटीटी का प्लेटफार्म अच्छा चल रहा है। सिनेमा डिजिटल हो जाने से एक्टरों को काम मिलने लगा है। 60-70 फीसदी न्यू-कमर वेब सीरीज में काम कर रहे हैं। ओटीटी पर इतनी शानदार वेब सीरीज चल रही हैं कि आप परिवार के साथ देख सकते हैं। राहुल पांडे का टीवी शो निर्मल पाठक की घर वापसी, समीर सक्सेना की सीरीज काला पानी देखिए, राहुल चिटेला की फिल्म गुलमोहर देखिए कमाल की कहानियां हैं सभी। 

Apoorva singh Karki
डायरेक्टर अपूर्व सिंह कार्की

मैं समझता हूं कि ऑडिएंस बहुत जागरुक हो गई है। डिजिटल के आने से दुनिया का सिनेमा हिंदी में डब होकर आ गया है। यूपी का आदमी कंतारा देख रहा है।

साउथ अमेरिका का शो-नारकोज देख रहे हैं। वर्ल्ड सिनेमा, रीजनल सिनेमा सभी कुछ ऑडिएंस देख रही है। दर्शकों की चेतना काफी विकसित हो गई है। वे समझ गए हैं कि सिनेमा कहानी सुनाने का जरिया है। उनकी समझ में आ गया है कि अच्छी फिल्में बन सकती हैं। उनमें यह अहसास जग गया है कि उन्होंने अच्छी फिल्में देखी हैं और देख भी रहे हैं। वैसे भी आप एक बात समझ लीजिए एक खराब फिल्म बनाने में भी उतनी ही मेहनत करनी पड़ती है जितनी कि एक अच्छी फिल्म बनाने में करनी पड़ती है। कैमरा, कास्ट्यूम, लाइट और अन्य सभी तकनीकी चीजों में उतना ही खर्च होता है जितना एक अच्छी फिल्म के निर्माण में। अब दर्शकों को क्या पसंद आता है इसका जवाब कोई बहुत सीधा सादा नहीं है।

एनिमल ने पांच सौ करोड़ कमा लिए यह भी सच है। हॉलीवुड की एक एक्शन फिल्म है जॉनविक। यह दुनिया भर के करोड़ों लोगों ने देखी। एक तरह से इसके प्रति जबरदस्त दीवानगी है दुनिया भर के लोगों की। फिल्म में सिवाय एक्शन के कुछ नहीं है। तो मेरी सोच तो यह है कि हर तरह का सिनेमा बनना चाहिए। आप किसी तरह के सिनेमा पर भी रोक नहीं लगा सकते। कुछ लोगों को थ्री इडियट पसंद है तो कुछ को सिर्फ एक बंदा काफी है पसंद आएगी।• (वरिष्ठ फिल्म पत्रकार दीप भट्ट से बातचीत पर आधारित।)  

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