Wednesday, June 26, 2024

एनिमल: स्त्री के अस्तित्व को नकारने वाली फिल्म को किसने बनाया ब्लॉकबस्टर?

 

सिनेमा ना ही सिर्फ मनोरंजन का एक साधन है, बल्कि इसने समय-समय पर समाज को सन्देश देने और जागरूक करने का दायित्व भी निभाया है। फिल्मकारों को यह एहसास होना चाहिए कि उनके हाथों में एक ऐसी कला और कन्धों पर नैतिक ज़िम्मेदारी है कि उन्हें फिल्मों में न सिर्फ मनोरंजन पर बल्कि उस फिल्म के माध्यम से प्रसारित सन्देश पर भी उतना ही ध्यान देना है और दोनों के बीच उचित सामंजस्य स्थापित करके चलना है। ‘एनिमल’ और ‘कबीर सिंह’ दोनों ही संदीप रेड्डी वांगा द्वारा निर्देशित ऐसी फ़िल्में हैं, जिसमें पुरुषार्थ की पराकाष्ठा दिखाने की कोशिश में महिला किरदारों को दोयम दर्जे का बना दिया गया। ‘कबीर सिंह’ और ‘एनिमल’ दोनों ही फिल्मों में महिलाएं सशंकित, बेजुबान और अपने साथी द्वारा नियंत्रित दिखाई पड़ती हैं। 

ज्योत्सना सिन्हा
ज्योत्सना सिन्हा*

‘कबीर सिंह’ एक ऐसे युवक की कहानी है, जो आक्रामक स्वभाव का व्यक्ति है। जो प्रीति नामक सीधी-साधी लड़की के प्रति आकर्षित हो जाता है। उसे पाने के लिए और अपने पुरुषार्थ को साबित करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाता है। वो प्रीति को बिना उसकी अनुमति के चूम लेता है, कबीर सिंह प्रीति की कक्षा में जाकर उसे आदेश देता है कि वो आगे आकर बैठे और इसका निर्णय भी वो खुद लेता है कि किस लड़की से मित्रता करना उसके लिए अच्छा होगा। यहां नायक नायिका पर एकाधिकार स्थापित करना चाहता है। वो जूनियर बैच के सारे लड़कों को प्रीति से बात करने से मना कर देता है, क्योंकी उसे प्रीति पसंद है। इस प्रकार एक देश के लोकप्रिय मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस करने वाली एक पढ़ी- लिखी, समझदार और रैंक होल्डर लड़की के जीवन की सारी स्वतंत्रताएं मात्र इसलिए छीन ली जाती हैं, क्योंकि वो एक लड़के को पसंद आ गयी है। होली के दिन वो यह आदेश हॉस्टल पहुंचवा देता है कि प्रीति को सबसे पहले कबीर ही रंग लगाएगा। इस वजह से होली के दिन कोई लड़की भी प्रीति के पास नहीं आती। फ़िल्म में हीरो खुद को रक्षक समझने की भारी भूल करता है और इस भूलवश वह अपनी प्रेमिका के जीवन को कठपुतली की भांति नियंत्रित करने लगता है। आश्चर्य की बात ये है कि नायिका को भी इस से कोई आपत्ति नहीं है, बल्कि वो हीरो की इन आक्रामक और अहंकारी हरकतों का प्रतिकार नहीं करती। अफ़सोस इस बात का है कि इस दुर्व्यवहार और अत्याचार को फिल्म में प्रेम की अभिव्यक्ति के तौर पर प्रदर्शित करने की कोशिश की गयी है। प्रेम को फिल्म में इतना सम्मान दिया गया है कि अपनी प्रेमिका से शादी न होने के ग़म में वो एक कुत्ते के साथ रहने लगता है जिसका नाम वह प्रीति रखता है। चीखना, चिल्लाना, अपनी प्रेमिका पर हाथ उठाना और उसका अपमान करना, कबीर सिंह जैसे क्रोधी एवं उत्तेजक स्वभाव के व्यक्ति के लिए बहुत ही सामान्य प्रतीत होता है। प्रीति से पूछा ही नहीं गया कि क्या वह कबीर से प्रेम करती भी है या नहीं। उसके सहमति, अनुमति और विचारों को कहीं स्थान ही नहीं दिया गया। फ़िल्म में अभिनेत्री को यह निर्णय लेने का अधिकार ही नहीं दिया गया कि वह अपने प्रेमी या साथी का चयन कर सके। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे आप बाजार में कोई वस्तु लेने गए, आप के पास बहुत से विकल्प है, जिनमें से आपको जो वस्तु सबसे अधिक आकर्षित करती है आप उसका चयन करते है। यहां आप वस्तु का चयन करते हैं, वस्तु आपका चयन नहीं करती। इस प्रकार कबीर ने प्रीति का चयन किया और प्रीति के पास चयन करने या न करने का कोई विकल्प ही मौजूद नहीं है।

फिल्म एनिमल 2023 की सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्म है। फिल्म का नायक रणविजय सिंह (रणबीर कपूर) स्वयं को अल्फा मेल कहता है और कविता की उत्पत्ति को कमजोर पुरुषों की असफलता का परिणाम बताता है। यह कहकर फ़िल्मकार ने कविताओं और कवियों की अवहेलना की है। वर्ड्सवर्थ के लिए कविता प्राकृतिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। पूरी फिल्म पुरुषों के आपसी संबंधों और रंजिश पर आधारित मालूम पड़ती है, जिसमें महिला किरदारों की भूमिका मात्र सपोर्टिंग एक्टर या फिलर जैसी लगती है। नायक की मां, पत्नी एवं बहनें किसी का भी किरदार न तो प्रभावशाली है और न ही सशक्त है। इनका रोल मात्र अपने परिवार के पुरुषों के गुस्से से डरना है। बलबीर सिंह (अनिल कपूर) की पत्नी अपने पति के गुस्से से डरती है। उनकी बेटियां अपने भाई के गुस्से से डरती हैं और शादीशुदा बेटी तो अपने भाई और पिता के साथ-साथ अपने पति से भी डर के रहती है। रणविजय सिंह की पत्नी गीतांजलि अपने पति के आदतों और व्यवहार से परेशान रहती है पर अपने पति के गुस्से के डर से सब बर्दाश्त करती है। दृश्य में रणविजय गीतांजलि से कहता है, “You have a big pelvis, you can accommodate many healthy babies.” इस तरह से वो गीतांजलि की तारीफ़ करता है। क्या किसी स्त्री की भूमिका बच्चे को जन्म देना मात्र है और इसके लिए किसी के शारीरिक बनावट पर टिप्पणी करना कहां तक उचित है। रणविजय अपनी पत्नी के मना करने के बाद भी उसके ब्रा स्ट्रैप को बार-बार खींच कर उसे चोट पहुंचाता है। हर वक़्त उस पर बेवज़ह चीखता, चिल्लाता रहता है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे एक पुरुष और पति होने के नाते अपनी पत्नी को प्रताड़ित करने का अधिकार उसे स्वतः प्राप्त हो गया है। वो अपनी पत्नी को हाउस हेल्पर के सामने कपडे उतारने को कहता है और वो उतार भी देती है। क्या वो उसे मना करने का साहस नहीं रखती है? वो कूल बनने के लिए अपनी सेक्स लाइफ की चर्चा डॉक्टर के साथ अकेले में न करके पूरे परिवार के सामने करता है और अपनी पत्नी को असहज कर देता है और महिला डॉक्टर से उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में सवाल पूछकर उनकी गोपनीयता को ठेस पहुंचाने का काम करता है। फिल्म के मुख्य नायक रणविजय को ना ही अपनी पत्नी और न ही किसी अन्य महिला के सम्मान की परवाह है। रणविजय की मुलाक़ात ज़ोया रिआज़ नामक युवती से होती है, जिसे उसके दुश्मनों द्वारा ‘हनी ट्रैप’ के लिए भेजा गया है। यह सच जानते हुए भी रणविजय उससे प्रेम का नाटक करता है और जब ज़ोया स्वयं ये बता देती है कि वो उससे प्रेम करने लगी है पर उसने जो पहले कहानी सुनाई थी, वो गलत थी तो रणविजय ज़ोया से जूते चाटने को कहता है जिससे वो अपनी वफ़ादारी साबित कर सके। ज़ोया खुद को बिल्कुल असहाय और मजबूर समझने लगती है। ऐसा करके फिल्म में कौन सा पौरुष दिखाने की कोशिश की गयी है, समझ नहीं आता। जहां महिला स्वयं को असहाय और ज़लील महसूस करे वह पुरुषत्व की विजय नहीं… हार है।

इन दोनों ही फिल्मों में कुछ समानताएं भी है। दोनों ही फिल्मों में पुरुष के क्रोधी स्वभाव का महिमा-मण्डन किया गया है और स्त्री के व्यक्तित्व एवं गरिमा को इसके आगे तुच्छ प्रदर्शित किया गया है। जहां आज वैश्विक पटल पर स्त्रियां अग्रणी भूमिका वहन कर रहीं है, वो और अधिक स्वाबलंबी बनने के लिए प्रयासरत है, वहां आज हमारे देश में कुछ ऐसी फ़िल्में बन रहीं है जो उन्हें प्रेरित करने के बजाय पुरुषवादी समाज की नकारात्मकता पर अधिक ध्यान केंद्रित करती है। दोनों ही फ़िल्में सर्वाधिक लाभ कमाने वाली फिल्मों में से एक है। बड़ी बजट और अत्यधिक लाभ कमाने वाली फ़िल्में ऐसा स्त्री विरोधी (misogyny) कंटेंट परोस कर दर्शकों के मन मस्तिष्क को दुष्प्रभावित करने का कार्य करते हैं। ऐसी फ़िल्में पुरुषों की छवि को भी धूमिल करती है और एक गलत आदर्शवाद को स्थापित करती है, जो महिला को नियंत्रित करके और उसको अपमानित करके स्वयं को श्रेष्ठ समझने की भूल करता है। वास्तव में सम्मान प्रेम में ही अन्तर्निहित होता है और कभी किसी को नियंत्रित करके और डरा कर उससे प्रेम नहीं करवाया जा सकता है। ये दोनों ही फ़िल्में प्रेम के अस्वाभाविक रूप को प्रकट करती है। फ़िल्में हमारे मन पर गहरा असर डालती है और और समाज में चाहे या अनचाहे तौर पर कुछ न कुछ संदेश देती हैं, इसलिए फिल्म-निर्माताओं को फिल्म बनाते समय कई बातों का ध्यान रखना चाहिए। फिलिप डेविसन ने मीडिया की “थर्ड पर्सन इफ़ेक्ट थ्योरी” का प्रतिपादन किया, जिसके अनुसार हर दर्शक को लगता है कि उसे छोड़कर मीडिया संदेशों को ग्रहण करने वाले हर व्यक्ति पर उसका अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। जबकि वह स्वयं के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव से अनभिज्ञ रहता है। इसी प्रकार हम जितना भी स्वयं को परिपक़्व समझ कर ऐसे फिल्मों को नज़रअंदाज करने की कोशिश करें पर वास्तव में फ़िल्में हमें प्रभावित करती हैं। ऐसी फ़िल्में दर्शकों के अवचेतन मन में यह कल्टीवेट करने का प्रयास करती हैं कि कबीर सिंह और रणविजय सिंह जैसे कठोर, क्रूर और क्रोधी स्वभाव के व्यक्ति ही अपने प्रेम को हासिल करने और अपनी प्रेमिका या पत्नी की सुरक्षा करने में सक्षम है इसके इतर सामान्य व सरल स्वभाव के व्यक्ति को प्रेम में असफलता प्राप्त होती है। प्रश्न यह है कि इतनी अति सुरक्षा की आवश्यकता ही क्यों है और किससे बचाना है? अपने जैसे अन्य अल्फा मेल्स से? इस प्रकार की फ़िल्में ही पार्टनर के टॉक्सिक व्यवहार को जस्टिफाई कर रही है क्योंकि यहां (फिल्म में) स्त्री की भी मौन स्वीकृति दिखाई देती है।

बिरगिट वोल्ज़, एक मनोवैज्ञानिक और “ई-मोशन पिक्चर मैजिक” के लेखक का मानना है कि, “क्योंकि कई फिल्में बुद्धि के बजाय भावनाओं के माध्यम से विचारों को प्रसारित करती हैं, वे भावनाओं को दबाने और भावनात्मक रिलीज को ट्रिगर करने की वृत्ति को बेअसर कर सकती हैं।”  इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि फ़िल्में दर्शकों के अवचेतन मन को इस प्रकार प्रभावित करती हैं कि वे अपने स्वाभाविक भावनात्मक नियंत्रण को खो देते है। कब उन्हें अपनी भावनाओं को व्यक्त करना है और कब उन पर काबू रखना है, इसकी चेतना धूमिल हो रही है। फ़िल्में अगर ऐसे स्त्री विरोधी सामग्री और आक्रामकता का सामान्यीकरण करेंगी तो काफी हद तक संभावना है कि इसका असर कुछ दर्शकों पर पड़े फिर या वे अधिक उग्र स्वभाव के हो सकते हैं या फिर गंभीर घटनाएं भी उनके लिए बेअसर हो सकती है, क्योंकि फिल्मों में वे कई हृदयविदारक घटनाएं देख चुके हैं। दोनों ही स्थिति मनुष्य के लिए खतरनाक है। अतः फिल्मकारों को समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए फ़िल्म निर्माण करना चाहिए। •

*(लेखिका फिल्मों पर नियमित लिखती हैं। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर विवि, लखनऊ में सिनेमा की शोधार्थी हैं।)

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