Wednesday, June 26, 2024

64 साल पहले बिमल रॉय की इस फिल्म में हुआ आज के दौर की राजनीति का चित्रण

-प्रहलाद अग्रवाल*

प्रसिद्ध गीतकार जावेद अख्तर ने क्या खूब कहा था कि इतिहास की किताब का अगर एक पन्ना पलट जाता है तो सैकड़ों साल निकल जाते हैं, दो सौ साल निकल जाते हैं यह दस-पंद्रह साल तो बहुत छोटा सा समय है। मगर एक कलाकार की आवाज, एक फिल्मकार की आवाज पचासों साल जिंदा रहती है।

आज मैं सबसे पहले एक फिल्म की बात करूंगा। आज मैं चाहता हूं कि वह फिल्म जिन्होंने नहीं देखा है, वे

प्रहलाद अग्रवाल

जरूर देखें। वह बिमल रॉय की 1960 में आई फिल्म थी, जिसका नाम था- परख। शायद बहुत लोगों को वह फिल्म स्मरण भी नहीं होगी मगर वह अद्भुत फिल्म थी, जिसमें हीरो-हीरोइन नायक-नायिका बहुत संक्षिप्त भूमिका निभाते हैं और सारा का सारा दारोमदार उन चरित्र अभिनेताओं पर टिका हुआ रहता था जिन्होंने समाज के विभिन्न रूपों से चुनाव लड़ने वाले नेताओं का चरित्रांकन किया है। बिमल रॉय दूरदर्शी फिल्मकार थे। उन्होंने 1960 में जो बताया था वह आज सन् 2024 में सबसे ज्यादा प्रासंगिक है।

यदि किसी को समझ में आए तो उसे फिर से देखे। राजनीति वहां तक चली गई जहां पर हम चिकित्सा को धंधा बना देते हैं, जहां पर हम चिकित्सा को अंधविश्वास से जोड़ देते हैं। यहां पर जो जितना शक्तिशाली आदमी होगा वह उतना ही धन और यौन उत्कंठा का नंगा नाच करेगा। किसी प्रकार से चुनाव जीतना चाहेगा। वह भले ही पंडित होगा- जिसका काम पूजा कराना है, जिसका काम मंदिर की रक्षा करना है. परंतु राजनीति में अधिक से अधिक प्रवेश कर कुछ भी पा लेना चाहेगा। उसके लिए शिक्षा कोई महत्व की चीज़ नहीं होगी। फिल्म में एक गाना था, जिसे गीतकार शैलेंद्र ने लिखा था। शैलेंद्र ने उस फिल्म के संवाद भी लिखे थे। उस फिल्म की कहानी संगीतकार सलिल चौधरी ने लिखी थी। क्या जोड़ी थी उन कलाकारों की। गीतकार संवाद लिखता है और संगीतकार कहानी। मैं शैलेंद्र का वह गाना बताना चाहता हूं, वह गाना था-

क्या हवा चली, बाबा, रुत बदली
क्या हवा चली, रे बाबा, रुत बदली
शोर है गलीगली, सौसौ चूहे खायके बिल्ली हज को चली
क्या हवा चली

पहले लोग मर रहे थे भूख से अभाव से
अब कहीं ये मर जाएं अपनी खावखाव से
मीठी बात कडवी लगे, गालियां भली
क्या हवा चली

आज तो जहान की उल्टी हरएक बात है
हम जो कहें दिन है भाई, लोग कहें रात है
रेत में भी खिल रही है प्यार की कली
क्या हवा चली

आम में उगे खजूर, नीम में फले हैं आम
डाकुओं ने जोग लिया, चोर भजें रामनाम
होश की दवा करो, मियां फ़ज़ल अली
क्या हवा चली

पूरा गाना इस तरह से आगे चलता है और उसमें बड़ी सौम्यता से, बड़ी सादगी से बड़ी सरलतापूर्वक बड़ी से बड़ी बात कह दी जाती है।

‘परख’ फिल्म का एक दृश्य

आजादी के महज बारह-तेरह साल बाद बनी वह फिल्म भविष्य की इबारत तैयार कर देती है। उस फिल्म को देखें तो ऐसा लगता है बिल्कुल आज की बनी चीज है। वह फिल्म बनाते समय बिमल रॉय ने यह नहीं सोचा था कि वह फिल्म सफल होगी कि असफल होगी, यह भी नहीं सोचा था कि यह किस काम आएगी। वह तो अपना काम कर रहे थे क्योंकि वह पचास साल आगे का देख रहे थे। वह अपने समय भर को नहीं देख रहे थे। उन्होंने आहट सुन ली थी। देश में भविष्य में किस प्रकार के चुनाव होंगे। चुनावों में क्या क्या उपयोग में लाए जाएंगे। कैसे कैसे नारे लगेंगे। कैसे कैसे मुद्दे होंगे। किन बातों पर जनता को भरमाया जा सकेगा। उस फिल्म में दिखाई गई तस्वीरें और परिस्थितियां बिल्कुल प्रासंगिक हैं। फिल्म में राजनीति के लिए सही नेता की परख सबसे बड़ी विडंबना है।

ये हाल तब था जब उस समय सिर्फ दो बार लोकसभा के चुनाव हुए थे। कलाकार को यह बात समझनी चाहिए। सिनेमा वालों को विशेष रूप से जो आज भले ही कहते हों कि सिनेमा की कोई विशेष भूमिका नहीं है या सिनेमा का महत्व नहीं है वह बाद में समझ में आएगा। दस, बीस साल से अधिक समय भी नहीं लगेगा। सिनेमा समाज में साधारण आदमी की नस-नस में है। वह टेलीविजन नहीं है। वह सिनेमा जो थियेटर में देखा जाता है। अकेले फिल्म देखना और पांच सौ लोगों के साथ फिल्म देखने में बहुत फर्क होता है। वह जो सार्वजनिकता है उसे आज नए लोग नष्ट करना चाहते हैं।

जहां तक सिनेमावालों की राजनीति का प्रश्न है तो मैं इसे सन् पचहत्तर के बाद बड़े रूप में देखता हूं। पचहत्तर के बाद जैसे ही राजनीति पटरी से उतरने लगी, वैसे ही जनता की मूर्खता बढ़ती चली गई। आज जनता अपने जनप्रतिनिधि से सवाल नहीं पूछती, ना ही मांग करती है बल्कि उनके साथ सेल्फी लेना चाहती है। उनके साथ की तस्वीरों को सोशल मीडिया पर शेयर करके खुश हो जाना चाहती है। बस, आज जनता की यही तमन्ना है। हमने अमिताभ बच्चन का चुनाव प्रचार देखा है। वो दौर देखा है जब जनता उनके प्रचार अभियान का किस पागलपन से हिस्सा बनने के लिए आतुर थी। अमिताभ बच्चन उस बड़ी राजनीतिक शक्ति को परास्त कर देंगे, इसका अनुमान भी नहीं था, लेकिन वैसा हुआ। फिर इसके बाद क्या हुआ? अमिताभ बच्चन जनप्रतिनिधि तो बन गए लेकिन क्या इलाहाबाद की जनता की आकांक्षाओं पर भी खरे उतरे? आज यह सवाल केवल अमिताभ बच्चन भर का नहीं है। राजनीति में फिल्मी सितारों की भूमिका केवल कठपुतली के अलावा कुछ नहीं। यह हरेक पार्टी में है। किसी एक के बारे में क्या कहूं। हां, इस मामले में सिर्फ एक आदमी सफल हुए, वह थे- सुनील दत्त। उनके अलावा जावेद अख्तर ने अपनी जिम्मेदार भूमिका निभाई।

लेकिन आज राजनीति में जो सितारे लाए जा रहे हैं उनका मकसद केवल इतना ही है कि वह फलां जगह से जीतकर उनकी पार्टी के लिए एक संख्या को बढ़ा देंगे। उनकी सोच सिर्फ इतनी भर होती है कि सन्नी देओल का ढाई किलो का हाथ वाला डायलॉग सुनकर उनके क्षेत्र की जनता उत्साहित हो जाएगी या फिर हेमा मालिनी का नृत्य देखकर महिलाएं प्रभावित हो जाएंगी- और इस प्रकार उनकी पार्टी की जीत का डंका बज जाएगा। ध्यान रखिए किसी भी सितारा का उपयोग किसी भी पार्टी में महज इतना ही है। इसके सिवा कुछ नहीं। जब समाज पतित होता है, जब राजनीति पतित होती है तब इस तरह के टोटके इस्तेमाल किये जाते हैं। आज के हिंदुस्तान में एक सौ चालीस करोड़ लोग रहते हैं, उन्हें जीने के लिए सामान्य सुख सुविधाएं चाहिए जो ये राजनेता नहीं दे पा रहे हैं। इसीलिए सितारों को राजनीति में लाया जा रहा है। इनका समाज हित में कोई उपयोगिता नहीं है।

*(लेखक प्रसिद्ध फिल्म इतिहासकार और विश्लेषक हैं। सिनेमा पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित और चर्चित। सतना में निवास।)

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