सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है… ये है विलेन अजीत की दुनिया!

Villain ajit
अभिनेता अजीत

*डॉ राजेश शर्मा

सिनेमा हमेशा से ही हर समाज के लोगों के बीच में लोकप्रिय रहा है। सिनेमा तो लोग देखते ही हैं उसका रस और आनंद भी लेते ही हैं लेकिन सिनेमा में काम करने वाले अभिनेता अभिनेत्रियों के बारे में भी लोग जानना चाहते हैं। सिनेमा के तकनीकी पहलुओं के बारे में जानना चाहते हैं। सिनेमा से जुड़ी हर बात को लोग जानना समझना चाहते हैं। सिनेमा से जुड़े बहुत सारे गॉसिप्स सिनेमा पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। ये पत्रिकाएं चलती ही सिनेमा की गॉसिप्स पर ही हैं। जिससे सिनेमा जगत को हर तरह का बढ़ावा मिलता है। लेकिन सिनेमा पर सारगर्भित लिखने के लिए भी कुछ लोग बहुत ही संजीदगी से कम कर रहे हैं। जवरीमल पारख,अजय ब्रह्मत्मज, पंकज राग, अजीत राय,दिनेश श्रीनेत सहित न जाने कितने लेखक ऐसे हैं जिन्होंने फिल्मों के बारे में बहुत विस्तार से अनेक पहलुओं पर लिखा है। इन्हीं में एक नाम है इकबाल रिजवी का। अभी इकबाल रिजवी की नयी किताब आई है अजीत का सफ़र नाम से. अजीत जो पहले फिल्मों में नायक और दूसरे दौर में खलनायक बन कर सामने आये। अजीत पर लिखने के लिए इकबाल रिजवी ने अजीत के दौर के उनके सहकर्मी अभिनेता, प्रोड्यूसर, डायरेक्टर से स्वयं बात की। इन लोगों में फिल्म इंडस्ट्री के बहुत बड़े नाम हैं जैसे देवानंद,धर्मेंद्र, सलीम खान, लेख टंडन,सुभाष घई, नलिनी जयवंत,बेगम पारा, रंजीत, जावेद जाफरी इत्यादि। इन फिल्मी हस्तियों से इकबाल ने बात करके अजीत की किताब का ताना बाना बुना। तमाम फिल्मी पत्रिकाओं फिल्म फेयर,सिने ब्लिट्ज़, माधुरी,संडे ऑब्जर्वर, स्क्रीन,इंडिया टुडे,शमा, जनसत्ता सरीखी कितनी ही पत्रिकाओं और अखबारों से अजीत को चुन चुन कर अपनी किताब के पन्नों में शामिल किया है। ढेर सारी रिसर्च और बरसों की मेहनत का नतीजा है किताब अजीत का सफ़र,सारा शहर मुझे…।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में नायक और नायिकाओं का तो बोलबाला रहा ही है लेकिन इस इंडस्ट्री से कुछ ऐसे खलनायक भी सिल्वर स्क्रीन पर उतरे हैं कि उस स्क्रीन की सारी तालियां जैसे उन्होंने ही बटोर ली हैं। वह मानक बन गए अपने किरदार में। इन्हीं में एक किरदार है जिसे सारा शहर लायन के नाम से जानता रहा है। सारा शहर क्या बल्कि सारा मुल्क। जिसकी मोना डार्लिंग के साथ उसके बॉस के संवाद को लोग कान लगाकर सुनते रहे। बरसों बरस बाद आज भी बॉस और मोना के मीम्स और चुटकुले लोगों से सुने जा सकते हैं। एक आम इंसान कैसे इतना बड़ा किरदार बन जाता है कि उसकी मौत के बरसों बाद भी लोग उसे उस किरदार में याद रखते हैं।

अफगानिस्तान के बड़ोजई कबीले के एक सरदार कंधार से उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर पहुंचकर बड़ोजई मोहल्ले को बसाते हैं। बडोजई में यह सरदार घोड़े के व्यापारी थे और शाहजहांपुर जाकर हैदराबाद के निजाम के यहां जब यह घोड़े की तिजारत के सिलसिले में जाते हैं तो उनके युवा बेटे बशीर अली खान को निजाम की सेवा में घोड़े के विशेषज्ञ की नौकरी मिल जाती है। इन्हीं बशीर अली के यहां शाहजहांपुर से ही ब्याही गई बेगम साहिबा की गोद में 27 जनवरी 1922 को एक बेटा आता है जिसका नाम हामिद अली रखा जाता है। देखते-देखते हामिद अली एक खूबसूरत गबरू जवान में तब्दील हो जाते हैं। फुटबॉल के शौकीन हमीद हैदराबाद में अपनी पढ़ाई भी पूरी करते हैं। कॉलेज में ही नाटकों का चस्का लगता है लेकिन यह बात पूरी तरह दिल और जहन में बैठी हुई है कि पिता हामिद की भर्ती सेना में ही करवाएंगे। क्योंकि यही खानदानी काम था। बस वक्त का इंतजार हो रहा था लेकिन होनी कुछ और थी।

नाटकों के चस्के का अगला पड़ाव सिनेमा था। सिनेमा देखना उस दौर में बुरी बात थी लेकिन हमीद के तो मामा की दो-तीन सिनेमाघर में कैंटीन थी फिर हम हमीद को कौन रोक सकता था। अजीत  के जहन में अब पर्दे पर चलते-फिरते लोग,गाने, डायलॉग, लड़ाई के दृश्य हावी होने लगे और हामिद दिन-रात इन्हीं तस्सवुरों में रहने लगे। दोस्तों को फिल्मों की कहानी सुनाना,बाप की नाराजगी से बहुत ज्यादा ख़ौफ़ज़दा होते हुए भी सिनेमाघर की तरफ चल देना हमीद का रोज का काम था कि क्लास में गुम बैठे हमीद को टीचर सेबेस्टियन ने कहा कि पढ़ाई में ध्यान नहीं है तो या तो फौज में जाओ या फिल्मों में किस्मत आजमाओ। अजीत को महसूस हुआ कि यह बात उनके दिमाग में अब तक क्यों नहीं आई। तो बस अजीत ने अपना मन बना लिया बम्बई पहुंचने का। कुछ खतों का इंतजाम किया, कुछ पैसों का इंतजाम किया। किताबें बेचकर और अम्मा से लेकर मात्र 113 रुपए का इंतजाम हुआ। अपने घर को छोड़ने से पहले भरपूर नज़र देखकर हमीद ने ट्रेन पकड़ ली।फिर मुंबई जाकर जैसा की सबके साथ होता है।संघर्ष ,संघर्ष और संघर्ष। हैदराबाद गेस्ट हाउस में टिक गए थे और रोजाना सहेजे हुए ख़तों के माध्यम से किस्मत आजमा रहे थे। कई बार की हार के बाद एक दिन मज़हर खान के संपर्क में आए। मज़हर खान उस समय के बड़े निर्देशक और अभिनेता थे और फिल्म “बड़ी बात’ 1941 में  बना रहे थे। उसमें एक टीचर का छोटा सा रोल उन्होंने हमीद को दे दिया। शूटिंग के वक्त जब हमीद अपना डायलॉग बोलकर बाहर निकले तो फिल्म के साउंड रिकॉर्डिस्ट बी एन शर्मा ने उन्हें बुलाया और कहा कि पहली बार मैंने ऐसी दिलकश मर्दानी आवाज सुनी है। अब हमीद को भरोसा हुआ कि वह हीरो बन सकते हैं। दिन तो गुरबत के थे लेकिन रफीक गजनवी की सिफारिश पर इनफॉरमेशन फिल्म ऑफ इंडिया में डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में आवाज देने का काम हमीद को मिल गया।इसी के साथ रुपए भी मिले तो गुजारा चल निकला।कई फिल्मी लोगों से दोस्तियां और मुलाकातों के सिलसिलों ने अजीत के लिए रास्ता निकाला।

प्रोड्यूसर डायरेक्टर अमरनाथ से हामिद 1949 में मिले और पहली बार पेशगी के तौर पर हजार रुपए भी मिले। मोटरसाइकिल से ना चलने की हिदायत भी मिली और मिला एक नया फिल्मी नाम। हामिद अली खान की जगह अमरनाथ की राय से नाम रख दिया गया अजीत।1950 में बेकसूर और फिर मेहरबानी के साथ-साथ 1951 में सरकार, सैयां, ढोलक और दामन फिर 1952 में अन्नदाता,आनंद मठ, मोती महल और तरंग में अजीत नायक के रूप में आए और अपना सपना सच होते देखने लगे जिसे उन्होंने हैदराबाद में देखा था। यानि रुपहले पर्दे पर खुद को बार-बार पेश होने का। अब तो अजीत सुरैया, मीना कुमारी, नलिनी जयवंत, बेगम पारा और गीताबाली जैसी नामी अभिनेत्रियों के साथ काम करने लगे। रुपहले पर्दे पर अजीत की गाड़ी चलती जा रही थी लेकिन जिस यादगार रोल का उन्हें इंतजार था वह मिला 1954 में आई एस जौहर की फिल्म नास्तिक से। यह फिल्म अजीत के करियर में मील के पत्थर के रूप में दर्ज है। इसमें उनकी हीरोइन नलिनी जयवंत थीं।अजीत और नलिनी जयवंत की जोड़ी इतनी पसंद की गई कि इन दोनों ने ग्यारह फिल्मों में एक साथ काम किया।

अब अजीत फिल्म करते और फुटबॉल खेलते। बॉक्सिंग स्विमिंग के साथ-साथ क्रिकेट और ताश का भी साथ उनको अच्छा लगता। मुश्किल लगता तो नृत्य करना और वह भी हीरोइन के साथ। लेकिन अजीत की जिंदगी पटरी पर आ चुकी थी। पैसे आ रहे थे,गाड़ी,बंगला बन चुका था। परिवार बढ़िया पल रहा था। फिल्मफेयर के लिए जितने लिखते हुए अजीत ने  कहा कि मेरी आत्मा में कोई छुपी हुई इच्छा नहीं है। कोई निराश नहीं है, और ना ही कोई अधूरी महत्वाकांक्षा बाहर आने को बेचैन है। अच्छा खाना, अच्छी सिगरेट दिन भर की मेहनत के बाद शाम को फुटबॉल का खेल बस यही जिंदगी उनको चाहिए थी.

अजीत की मुलाकात एक फिल्मी पार्टी में विदेशी इंटीरियर डेकोरेटर गोईंन दी मोंटे से हुई। यह मुलाकात बागी तेवरों के चलते शादी में परिवर्तित भी हुई लेकिन सब कुछ होने के बावजूद भी ये शादी में चली नहीं। मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार ने अजीत को राय दी कि वह इस शादी से बाहर आ जाएं तभी वह सुखी रह सकते हैं। शादी से बाहर आते ही पिता बशीर खान ने अजीत की शादी शाहजहांपुर के पास शाहबाद इलाके की एक पठान खानदान की लड़की शाहिदा खान से कर दी। इस शादी ने अजीत को स्थायित्व दिया।परिवार दिया।

1957 में दिलीप कुमार के साथ नया दौर और 1960 में के आसिफ की फिल्म मुग़ल-ए-आज़म में शहजादा सलीम के सेनापति के रूप में अजीत को बुलंदियों का एहसास करवाया। 1960 में अतीत का करियर ढलान पर चलने लगा। फिर एक दिन अभिनेता राजेंद्र कुमार ने अजीत को एक दक्षिण की फिल्म के लिए बतौर विलन का रोल करने की राय दी।टी प्रकाश राव की फिल्म सूरज ने अजीत को नायक के पारिश्रमिक से चार गुना अधिक पारिश्रमिक खलनायक के तौर पर दिया। साथ ही फिल्मों में एक नई पारी भी दे दी। गंभीर धारदार आवाज, कठोर लेकिन शालीन लहज़ा, निडर और असरदार व्यक्तित्व वाले इस खलनायक ने फिल्मी पर्दे पर इतिहास रच दिया। फिर तो अजीत के पास फिल्मों की लाइन लग गई। अजीत हर तरह के रोल स्वीकार कर रहे थे। उन पर अभी खलनायक का ठप्पा नहीं लगा था लेकिन जंजीर और कालीचरण ने अजीत को बिल्कुल एक नया ही जीवन दिया। जंजीर का उद्योगपति धर्म दयाल तेज़ा जो बहुत नापतोल कर बोलता है,जो अपनी दुष्टता, क्रूरता, चालाकी,धूर्तता और धोखेबाजी से मजबूत होता है।

जंजीर में अमिताभ बच्चन बने विजय की खामोशी और गुस्से को ताकत मिलती है अजीत के किरदार से। तेजा का रौबीला चेहरा,इस्पात की तरह सख्त लहजा और बर्फ की तरह ठंडी आवाज लोगों के दिलों दिमाग में गहरे तक बैठ गई।फिर पत्थर और पायल, चट्टान सिंह और खोटे सिक्के में डाकू बने अजीत अपनी छाप छोड़ते हैं लेकिन 1976 में आई फिल्म कालीचरण और उसका डायलॉग सारा शहर मुझे लायन के नाम से जानता है ने ऐसा मानक रच दिया कि कालीचरण फिल्म इस डायलॉग के कारण ही याद की जाती है।

बाद में फिल्मों से संन्यास लेकर अजीत हैदराबाद में ही बच्चों के पास शिफ्ट हो गए थे।उस समय हैदराबाद से मुंबई आकर काम  भी करते रहे लेकिन बदलते समय, बदलते फिल्म निर्माण तकनीकों, बदलते रैवैय्यो, बदलते नैतिक मूल्यों की वजह से फिर अजीत ने फिर मिलता हुआ काम भी छोड़ दिया। अजीत अपने उसूलों पर सख्ती से कायम रहते थे। उसूलों के मामले में वह किसी की भी नहीं सुनते थे। अपने तीनों बेटों को भी उन्होंने फिल्मी चमक से दूर ही रखा।अजीत को शायरी का शौक था। अपने घर पर शायरी की महफ़िल सजाते थे।अजीत कभी फिल्मी पार्टियों में नहीं जाते थे।घर में फिल्मी दुनिया की बातें भी नहीं होती थी।अजीत उसूलों वाले इंसान थे लेकिन अपने दोस्तों के लिए वह किसी भी हद तक जा सकते थे। जब अजीत फिल्मों से दूर हो गए तो उनके बोले हुए डायलॉग ज्यादा चर्चित हो गए। लिली डोंट बी सिली या माइकल या मोना डार्लिंग यह सब बहुत चर्चित होने लगे। अभिनेता जावेद जाफरी ने टीवी की दुनिया में अजीत की मिमिक्री करके बहुत लोकप्रियता हासिल की थी। वह मैगी का एक विज्ञापन हुआ करता था जिसे जावेद जाफरी ने कई तरीके से किया। अजीत के संवादों को आधार बनाकर चुटकुले बनाए जाने लगे।

अभिनेता सलमान खान के पिता लेखक सलीम खान का अजीत की जिंदगी में अहम स्थान रहा है। अजीत में हास्य बोध भी खूब भरा था। सलीम खान भी इसी मिजाज के इंसान थे। इसलिए इनकी खूब पटती थी। 23 अक्टूबर 1998 की शाम जब मगरिब की आज़ान हो रही थी हामिद अली खान दिल के दौरे से इस दुनिया से हमेशा के लिए रुखसत हो गए।यह महज़ इत्तेफाक है कि जब वह पैदा हुए थे तब भी उस वक्त मगरिब की आज़ान ही हो रही थी।

अजीत के बारे में इन कहानियों के साथ बहुत-बहुत सारी कहानियां, अजीत का अपने दौर के अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के साथ उनके संबंध के बारे में अजीत खुलकर बोले हैं। किस मयार के लोग इंडस्ट्री में थे उनके बारे में अजीत ने खुल कर बात की है। वह सारे संवाद, अजीत की जिंदगी के अनेक पहलुओं का हिसाब किताब, एक मामूली आदमी से इतने बड़े अभिनेता और फिर इतनी मजबूत खलनायक बनने की यात्रा को इकबाल रिजवी ने बहुत ही खूबसूरती से पिरोया है। अजीत की जिंदगी के और दिलचस्प किस्सों को जानने के लिए इकबाल रिजवी की इस किताब को पढ़ना बहुत जरूरी है। यह बात तय है कि किताब की भाषा का प्रवाह ऐसा है कि एक बार किताब हाथ में आने के बाद आप किताब को छोड़ नहीं सकते। 

(पुस्तक- सारा शहर मुझे…. अजीत, लेखक – इकबाल रिज़वी, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन।) 

*लेखक सिनेमा पर नियमित लिखते हैं। बरेली में निवास।

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