धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन… ह्रषिकेश मुखर्जी के बिना अधूरे हैं ये सुपरस्टार्स

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Film Director Hrishikesh Mukherjee
हृषिकेश मुखर्जी के दीवाने सुपरस्टार्स

-शरद दत्त

यह बात उन दिनों की है ज मनोहर श्याम जोशी हिंदुस्तान समूह की पत्रिकाओं- साप्ताहिक हिंदुस्तान तथा मॉर्निंग ईको के संपादक थे और हम उनके साथ गुरु-शिष्य की परंपरा अत्यंत गंभीरता से निभा रहे थे। हमें याद नहीं पड़ता कि इस शिष्य ने गुरु को कभी कोई दक्षिणा दी हो, लेकिन गुरु ने अवश्य दीक्षास्वरूप हमारा परिचय फ़िल्म जगत की दो विभूतियों से करा दिया। ये विभूतियां थीं ऋत्विक घटक तथा ह्रषिकेश मुखर्जी। जहां तक ऋत्विक घटक का सवाल है, उनसे हमारी दो-चार मुलाकातें ही हुईं, लेकिन ह्रषिकेश से सिलसिला काफ़ी लंबा चला और कई मुलाक़ातों में हमने महसूस किया कि उनके मन में मनोहर श्याम जोशी के प्रति स्नेह व सम्मान के मिश्रित भाव हैं।

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शरद दत्त

बहरहाल, हृषिकेश मुखर्जी की जिन बातों ने हमें प्रभावित किया, वे थीं- सादगी, अनुशासनप्रियता तथा मध्यवर्गीय मूल्यों के प्रति वचनबद्धता। शायद इसका कारण यह था कि वे स्वयं मध्यमवर्ग से थे और ये तीनों विशेषताएं उनके सिनेमा में बखूबी देखी जा सकती हैं।

हृषिकेश मुखर्जी का जन्म 30 सितंबर 1922 को कलकत्ता के मध्यवर्गीय परिवार में हुआ और वहीं उन्होंने आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद रसायन विज्ञान में स्नातक की डिग्री हासिल की। फिर वे एक विद्यालय में अध्यापन करने लगे और साथ-साथ आकाशवाणी कोलकाता के अस्थाई कलाकार के बतौर भी काम करते रहे। सन् 1945 में उन्होंने कोलकाता के ‘न्यू थिएटर्स’ में लैब असिस्टेंट की नौकरी शुरू की। वैसे वे कैमरामैन बनना चाहते थे। उनके प्रेरणा-पुरुष बिमल रॉय। बिमल रॉय ने अपने करियर की शुरुआत स्थिर-छायाकार के रूप में की थी, बाद में वे कैमरामैन बन गए।

नितिन बोस की सभी फ़िल्मों का छायांकन उन्होंने किया था। जब हृषिकेश मुखर्जी का ‘न्यू थिएटर्स’ में प्रवेश हुआ, तब तक बिमल रॉय निर्देशक बन चुके थे। उन्हीं के कहने पर हृषि’दा फ़िल्म-संपादन से जुड़े। ‘न्यू थिएटर्स’ में संपादन-विभाग के प्रमुख सुबोध मित्तिर थे, जिन्हें लोग कैंची ‘दा के नाम से पुकारते थे। हृषि’दा ने उन्हीं से फ़िल्म-संपादन की बारीकियां सीखीं। उनके द्वारा संपादित पहली फ़िल्म थी- तथापि। बाद में उन्होंने बिमल रॉय के साथ बतौर सहायक-निर्देशक भी काम किया।

बिमल रॉय जब अपने कुछ सहयोगियों के साथ कोलकाता से मुंबई आए और ‘बॉम्बे टाकीज’ की मां तथा ‘अशोक कुमार प्रोडक्शंस’ की परिणीता का निर्देशन करने के बाद 1952 में उन्होंने ‘बिमल रॉय प्रोडक्शंस’ की स्थापना की, तो हृषिकेश मुखर्जी भी कलकत्ता से स्थायी तौर पर मुंबई आ गए। ‘बिमल रॉय प्रोडक्शंस’ की पहली फ़िल्म थी- दो बीघा ज़मीन, जो संगीतकार सलिल चौधरी की एक कहानी के आधार पर बनाई गई थी। इसकी पटकथा लिखने की ज़िम्मेदारी बिमल रॉय ने नवेंदु घोष तथा हृषिकेश मुखर्जी को सौंपी। इस फ़िल्म का संपादन भी हृषिकेश मुखर्जी ने ही किया था। फिर तो ‘बिमल रॉय प्रोडक्शंस’ की मधुमती तक बनी सभी फ़िल्मों का संपादन हृषि’दा ने ही किया।

मधुमती की शूटिंग के दौरान हृषि’दा अभिनेता दिलीप कुमार के संपर्क में आए और दिलीप कुमार ने उन्हें फिल्म-निर्देशन के लिए प्रेरित किया, तो वे 1957 में फ़िल्म-निर्देशक बन गए। उनकी बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म थी- मुसाफ़िर, जो ऋत्विक घटक की एक कहानी पर आधारित थी। इस फ़िल्म में तीन युग्मों की कहानी है- दिलीप कुमार व उषा किरण, शेखर व सुचित्रा सेन तथा किशोर कुमार व निरूपा राय।

दिलीप कुमार उन दिनों सर्वाधिक पारिश्रमिक लेते थे, किंतु इस फ़िल्म के लिए हृषि’दा से उन्होंने नगण्य पारिश्रमिक लिया और अपनी आवाज़ में लता के साथ ‘लागी नाहीं छूटे’ गाना भी गाया। हृषि’दा की यह फ़िल्म अपने समय से पहले आ गई थी। फलतः इसे बॉक्स ऑफ़िस पर तो सफलता न मिली, किंतु 1957 के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समारोह में ‘सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट’ अवश्य प्राप्त हुआ। 

Hrishikesh mukherjee
फिल्म निर्देशक ह्रषिकेश मुखर्जी

सन् 1957 में ही आई हृषि’दा की दूसरी फ़िल्म- अनाड़ी (राजकपूर, नूतन, मोतीलाल), जिससे फ़िल्म-जगत में उनकी जड़ें जम गईं। इस फ़िल्म के लिए उन्हें उस वर्ष की सर्वोत्तम हिंदी-फ़िल्म का राष्ट्रीय सम्मान ‘रजत कमल’ दिया गया। उनकी तीसरी फ़िल्म अनुराधा के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म-पुरस्कार ‘स्वर्णकमल’ से सम्मानित किया गया। यह हृषिकेश मुखर्जी का ही कमाल था कि इस फिल्म में उन्होंने नई अभिनेत्री लीला नायडू को, जो अपने समय की अप्रतिम सुंदरी थी, बलराज साहनी जैसे मंजे हुए कलाकार के समक्ष रखकर एक परफ़ेक्ट पेयर बना दिया। इस फ़िल्म की अपार सफलता के बाद हृषिकेश मुखर्जी ने एक प्रयोगात्मक फ़िल्म बनाई मेम दीदी, जो रंगमंच की ओपेरा शैली में थी। लगता है कि यह फ़िल्म भी मुसाफ़िर की तरह वक्त से पहले आ गई थी और फ़्लॉप साबित हुई। लेकिन हृषि’दा इसकी असफलता से निराश नहीं हुए और अगले ही वर्ष उन्होंने राजकपूर, पद्मिनी एवं नंदा को लेकर आशिक़ बनाई, जिसमें संगीत शंकर-जयकिशन का था। इस फ़िल्म के कई गीत आज भी संगीतप्रेमियों को याद हैं।

हृषिकेश मुखर्जी संभवतः एकमात्र निर्देशक थे, जिन्हें अभिनय की त्रिमूर्ति राजकपूर, दिलीप कुमार तथा देव आनंद के साथ काम करने का मौक़ा मिला। देव आनंद के साथ उन्होंने साधना को लेकर असली नक़ली तक बनाई, जिसका संगीत अत्यंत लोकप्रिय हुआ। हृषिकेश मुखर्जी तथा निर्माता एन.सी. सिप्पी का साथ 1957 में मुसाफ़िर फ़िल्म से शुरू हुआ और 1963 तक चला। इसके बाद उन्होंने स्वयं की निर्माण-संस्था बनाई और एन.सी. सिप्पी के साथ सहनिर्माता के रूप में ‘रूपम् चित्र’ के बैनर से आनंद, गुड्डी, बावर्ची, मिली, चुपके-चुपके जैसी सफल फिल्मों का निर्देशन किया। एल.बी. फिल्म्स के साथ भी हृषि’दा का लंबा साथ रहा। हृषिकेश मुखर्जी की कई फ़िल्में प्रायः एक ही नायिका पर केंद्रित होती थीं। उनकी कई फ़िल्मों (अनुराधा, अनुपमा, गुड्डी, मिली) में यह समानता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।

वे ‘न्यू थिएटर्स’ के दिनों से ही बिमल रॉय की शैली के कायल थे। मगर उनकी एक विशेषता यह थी कि उन्हें अपने कलाकारों से काम लेना ख़ूब आता था। धर्मेंद्र सरीखे ही-मैन व माचो हीरो से उन्होंने अनुपमा व सत्यकाम जैसी फ़िल्मों में अत्यंत संवदेनशील भूमिकाएं कराईं, जो धर्मेंद्र की छवि से मेल नहीं खाती थीं। इसी तरह उन्होंने राजेश खन्ना से, जो उस समय फ़िल्म-जगत के सुपरस्टार थे, आनंद, नमक हराम तथा बावर्जी में सर्वथा भिन्न प्रकृति की भूमिकाएं कराईं। जया भादुड़ी जैसी प्रभावशाली अभिनेत्री हृषि’दा की ही खोज थी। प्राण जैसे खलनायक व चरित्र अभिनेता के वास्तविक रूप का परिचय भी हृषि’दा ने गुड्डी में कराया। उन्होंने फ़िल्मों के पात्रों को लेकर कभी कोई समझौता नहीं किया। यह उनकी सोच व सूझबूझ ही थी कि बड़े-से-बड़ा कलाकार भी उनके साथ काम करने के लिए हरदम तैयार रहता था।

शर्मिला टैगोर उन दिनों ग्लैमरस भूमिकाएं ही किया करती थीं हृषि’दा ने उन्हें अनुपमा के लिए चुना, तो शर्मिला को बड़ी हैरानी हुई थी। लेकिन हृषि दा का कहना था कि उस सहमी हुई लड़की का रोल सिर्फ़ वही कर सकती है, क्योंकि उसकी आंखें बोलती हैं और अंततः शर्मिला ने वह भूमिका स्वीकार कर ली। शर्मिला व धर्मेंद्र से हृषि’दा ने सत्यकाम व अनुपमा में गंभीर भूमिकाएं कराईं, तो इसी जोड़ी से चुपके-चुपके जैसी कॉमेडी कराकर दर्शकों को भरपूर मनोरंजन भी दिया। उनकी हास्यप्रधान फ़िल्मों में बावर्ची, गोलमाल, बुड्ढा मिल गया, नरम गरम, ख़ूबसूरत और झूठ बोले कव्वा काटे शामिल हैं।

झूठ बोले कव्वा काटे हृषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित अंतिम फ़िल्म थी, जिसमें वे अमोल पालेकर को लेना चाहते थे। अमोल उनके प्रिय कलाकार थे, लेकिन फ़िल्म शुरू होते-होते कई वर्ष निकल गए और हृषि’दा को लगा कि अमोल इस बीच अपनी बढ़ी उम्र के फलस्वरूप उनकी कल्पना के हीरो की भूमिका में फिट नहीं रहेगा, तो उन्होंने मुख्य भूमिका में उसके स्थान पर अनिल कपूर को ले लिया।

हृषि’दा की एक यादगार फ़िल्म है- आशीर्वाद। इसमें अशोक कुमार ने कमाल का अभिनय किया था। अपने करियर के प्रारंभिक दौर में अशोक कुमार ने कई फ़िल्मों के लिए अपने स्वर में गीत गाए थे, लेकिन पार्श्वगायन का सूत्रपात होने के बाद उन्होंने अपने स्वर में गाना बंद कर दिया था। हृषि’दा ने काफ़ी वर्षों बाद उनसे उन्हीं के स्वर में ’रेलगाड़ी’ तथा ‘नाव चली’ जैसे गीत गवाए। हरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय द्वारा लिखे गए इन गीतों को बच्चों के बीच अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई।

संगीत हृषि’दा की फ़िल्मों का अभिन्न अंग रहा है। गुरुदत्त एवं विजय आनंद अपनी फ़िल्मों के गीतों का छायांकन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखते थे कि वे कहानी को आगे बढ़ाने में मददगार साबित हों। हृषि ‘दा की फ़िल्मों के संगीत व गीतों के छायांकन में भी यह विशेषता नज़र आती है। लेकिन वे एक बात को लेकर बहुत सचेत रहते थे और वह यह कि गीत कहानी पर हावी न हों और न ही उनसे फ़िल्म की कहानी में अवरोध आए। राजकपूर से आत्मीय संबंधों के कारण वे शंकर-जयकिशन, शैलेंद्र तथा मुकेश के क़रीब आ गए थे। शंकर-जयकिशन ने अनाड़ी, आशिक़, असली नक़ली, सांझ और सवेरा में हृषि’दा के लिए मधुर धुनें बनाईं। अनाड़ी के ‘सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी’, ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार’ (लता-मुकेश), ‘तेरा जाना, दिल का लुट जाना’ (लता) जैसे गीतों और मन्ना डे के स्वर में नववर्ष-गीत ने फ़िल्म को सफल बनाने में महती भूमिका अदा की।

सन् 1962 में रिलीज़ होनेवाली फ़िल्म आशिक़ में ‘मैं आशिक़ मस्त बहारों का’, ‘ओ शमा मुझे फूंक दे’ (मुकेश) तथा ‘महताब तेरा चेहरा’ (लता-मुकेश) आज भी संगीतप्रेमियों को याद हैं। असली नक़ली में भी शंकर-जयकिशन ने ‘तुझे जीवन की डोर से बांध लिया है’ (लता-रफ़ी), ‘लाख छुपाओ छुप न सकेगा, दाग़ है इतना गहरा’ (लता), ‘छेड़ा मेरे दिल ने तराना तेरे प्यार का’ तथा ‘कल की दौलत आज की खुशियां’ (रफ़ी) जैसी यादगार धुनें बनाई। अनुपमा के लिए क़ैफ़ी आज़मी द्वारा लिखे गए गीतों की संगीत-रचना हेमंतकुमार ने की थी। इस फ़िल्म की कहानी में हृषि ‘दा ने ‘धीरे-धीरे मचल ऐ दिले-बेकक़रार’, ‘ऐसी भी बातें होती हैं’ (लता) तथा ‘या दिल की सुनो दुनियावालो’ (हेमंत कुमार) जैसे गीत पिरोकर अपने संगीत – प्रेम का परिचय दिया। आनंद में उनके प्रिय संगीतकार सलिल चौधरी का संगीत था और गीत लिखे थे योगेश व गुलज़ार ने। मुकेश के स्वर में ‘मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने’ व ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ तथा मन्ना डे के स्वर में ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली’ सरीखे गीत इस फ़िल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में कारगर साबित हुए।

सचिनदेव बर्मन तथा राहुलदेव बर्मन ने भी हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों में अविस्मरणीय संगीत दिया। अभिमान व अर्जुन पंडित में सचिनदेव बर्मन का और बुड्ढा मिल गया, नमक हराम, मिली, गोलमाल तथा ख़ूबसूरत में राहुलदेव बर्मन का संगीत सर्वश्रेष्ठ है। मदन मोहन व जयेदव ने क्रमशः बावर्ची तथा आलाप की संगीत-रचना की। आलाप के गीत हृषि’दा ने डॉक्टर राही मासूम रज़ा से लिखवाए थे। दरअसल प्रयोग करना हृषि’दा की रग-रग में बसा हुआ था। अनुराधा फ़िल्म की संगीत-रचना के लिए उन्होंने सुप्रसिद्ध सितारवादक पंडित रविशंकर को आमंत्रित किया। इसी प्रकार बावर्ची के लिए मदन मोहन की संगीत-रचना में एक शास्त्रीय गीत गाने के लिए उन्होंने निर्मला देवी तथा लक्ष्मीशंकर सरीखे शास्त्रीय गायकों को लिया। इस गीत के बोल थे- “भोर आई, गया अंधियारा।” इसी फ़िल्म में हरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय ने भी अपने स्वर में एक गीत गाया था। 

हृषिकेश मुखर्जी ने अपने जीवन में 42 फ़िल्मों का निर्देशन किया। ग़बन फ़िल्म का निर्देशन कृष्ण चोपड़ा कर रहे थे, किंतु उनके आकस्मिक निधन के बाद हृषि’दा ने ही वह फ़िल्म पूरी की। इसी प्रकार, उनके गुरु बिमल रॉय निधन से पूर्व चैताली नामक फ़िल्म का निर्देशन कर रहे थे। बाद में उस फ़िल्म को भी हृषि’दा ने ही पूरा किया।

जब फ़िल्मों में अश्लीलता व हिंसा की भरमार होने लगी, तो हृषि ‘दा ने फ़िल्मों के निर्माण व निर्देशन से लगभग संन्यास ही ले लिया था। लेकिन उस बीच भी वे खाली नहीं बैठे और उन्होंने छोटे परदे के लिए धारावाहिकों का निर्देशन किया। उनके द्वारा निर्देशित धारावाहिक उजाले की ओर, हम हिंदुस्तानी, तलाश, धूपछांव तथा रिश्ते बहुत लोकप्रिय हुए।

हृषिदा ने आर्थराइटिस की बीमारी, दोनों घुटनों के ऑपरेशन तथा एकाकीपन कारण अपना आखिरी समय पढ़ने में लगा दिया था। वे कहते थे, “फ़िल्मों की आपाधापी में मेरा अध्ययन छूट गया था। अब उसकी कमी पूरी कर रहा हूं। वे अकसर कहा करते थे, “मानव-जीवन की यह विडंबना है कि जब वह मानसिक रूप में परिपक्व होता है तो शारीरिक रूप से उसकी शक्तियां क्षीण होने लगती हैं।” इसी कारण वे अपना गंगा किनारे जीवन को फ़िल्माने का सपना पूरा नहीं कर पाए और लंबी बीमारी के बाद 27 अगस्त 2006 को उनका निधन हो गया।

चार दशकों तक सिनेमा को लोकप्रिय योगदान के लिए 1999 में हृषि ‘दा को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से और 2001 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। उन्होंने सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, कहानी, पटकथा एवं संपादन के लिए सात बार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार प्राप्त किए। इसके अलावा 1961 के बर्लिन फ़िल्म समारोह में उन्हें अनुराधा के लिए गोल्डन बियर से भी सम्मानित किया गया था।• (शरद दत्त आज हमारे बीच नहीं हैं। उनका निधन 12 फरवरी, 2023 को लंबी बीमारी के बाद हो गया था। यह लेख उनकी पुस्तक ‘हस्ती मिटती नहीं हमारी’ से लिया गया है।) 

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