आज हिंदी सिनेमा से दर्द कहां चला गया…! बता रहे हैं पटाखा के लेखक चरण सिंह पथिक

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pataakha
पटाखा फिल्म का सीन

एक जमाना था जब सिनेमा सबके लिए बनता था। सबके साथ बनता था। चाहे आप सामाजिक सरोकार से ओत प्रोत कला फिल्मों को ले लीजिये या अस्सी के दशक तक के कमर्शियल सिनेमा को याद कर लीजिये। उस वक्त पूरा परिवार सिनेमा देखने को एक उत्सव की तरह लेता था। तब सिनेमा सार्थक मुद्दों वाली कहानियों पर आधारित होता था। सिनेमा पर प्रबुद्ध लोग बहस करते थे। जैसे-जैसे तकनीक का उदय हुआ, राजेश खन्ना आये फिर अमिताभ बच्चन आये। जो युवाओं से जुड़े विभिन्न चरित्रों को अभिनीत कर लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे। बच्चे, युवा और परिवार के बुजुर्ग के अलावा हर उम्र की महिलाएं सभी इन्हें देखा करते थे।

नब्बे और दो हजार के दशक आते-आते सिनेमा की तकनीक इतनी बदल चुकी थी कि पुरानी पीढ़ी उस दौड़ से बाहर हो गई। विश्व सिनेमा बदल रहा था। आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल, विज्ञान के विकास ने सुपरस्टारों का दौर लगभग खत्म कर दिया था। सुपरस्टारों के दौर ने सार्थक सिनेमा को निगल लिया था। अब सुपरहीरो के दौर ने सुपरस्टारों के दौर को खत्म कर दिया। सोशल मीडिया और सैकड़ों चैनलों के उदय होने से युवा प्रतिभाओं को अपना हुनर दिखाने को मंच उपलब्ध करवाया। मगर युवाओं से जुड़े सार्थक विषय अब भी ओटीटी का दौर शुरू होने के बावजूद उठाने का जोखिम नहीं लिया गया। हिंसा,ड्रग्स, गालियां और नंगेपन के अलावा युवाओं को कुछ भी देखने को नहीं मिल रहा था। पू्ंजी के खेल ने बेरोजगारी, संस्कार और सामाजिक-पारिवारिक सामूहिकता को सिनेमा से बेदखल करके यतीम बना दिया।

अब इस दौर में युवा निर्देशक, युवा निर्माता, युवा लेखक, युवा गीतकार आदि सभी हड़बड़ी में हैं कि विषयहीन, मुद्देविहीन पटकथा और बेतुके गीतों के सहारे एक ऐसा सिनेमा बनाया जाये जिसमें सबकुछ हो लेकिन अच्छी कहानी न हो। जद्दोजहद यही रहती है कि अधिकतम हिंसा, क्रूरता और नंगई से कैसे सैकड़ों, हजारों करोड़ कमाये जाएं। अब जब युवा सिनेकारों का उद्देश्य ही यही हो तो वे एनिमल और कबीर सिंह जैसी फिल्म ही बनाएंगे। मदर इंडिया नहीं! 

Pushpa 2
पुष्पा 2

दरअसल सिनेमा देखने का हमारा चुनाव, हमारा टेस्ट, हमारी समझ ऐसे सिनेकारों ने बदल कर रख दिया। जहां भी देखोगे, जब भी देखोगे आपको यही दिखाया जायेगा। अच्छे सिनेमा का विकल्प खत्म कर दिया गया है। अगर कोई युवा सिनेकार ऐसा जोखिम उठाकर युवाओं के प्रासंगिक विषयों पर एक अच्छी फिल्म बना भी लेता है जो उसे रिलीज होने की जगह ही नहीं मिलती। अगर जैसे-तैसे कहीं अंगुली रखने लायक जगह मिलती भी है तो दर्शक नहीं जुटते। छोटे शहरों में सिंगल-स्क्रीन हॉल तक बंद हो चुके हैं। स्मार्टफोन ने जितने अवसर उपलब्ध करवाये, उतने ही संभावित अवसर वह निगल भी गया।

मान लिया कि जमाना बदल गया है। मान लिया कि तकनीक कहीं से कहीं पहुंच चुकी है। मान लिया कि भाषा और विषय तथा शिल्प-शैली भी बदल चुकी है। पूंजीवाद का दौर है। सब मान लिया कि राजनीति बदल गई। पारिवारिक रिश्ते बदल गये तो सिनेमा क्यों नहीं बदलेगा…। जरूर बदलेगा और बदलना भी चाहिये। इन बातों से कौन ना-इत्तेफाक रखेगा… कोई नहीं।

मगर एक बेरोजगार युवा का दर्द अब भी वही है जो पचास साल पहले था। आंसू का स्वाद अब भी खारा है। कांटा चुभने का दर्द वैसा ही है जैसे दर्शकों पहले था। संघर्ष चाहे सत्ता का हो या जीवनयापन का, सब वैसा ही है जैसा राजतंत्र में था।

संवेदना का सफर कहां बदला? युवा सिनेकारों को ये बात भलीभांति समझनी होगी कि विज्ञान और तकनीक के बदलने से सबकुछ नहीं बदल जाता। •

(लेखक हिंदी के वरिष्ठ कथाकार हैं। चंद्रधर शर्मा गुलेरी कथा सम्मान समेत कई पुरस्कार प्राप्त। ‘दो बहनें’ पर बहुचर्चित ‘पटाखा’ तथा ‘कसाई’ पर फिल्म निर्माण। जयपुर में निवास। संपर्क- [email protected])  

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