आइटम सॉन्ग स्त्री की कामुक अदाओं के बगैर क्यों पूरा नहीं होता?

Nora Fatehi Item songs
नोरा फतेही

-अभिषेक सिंह*

आइटम सॉन्ग- Item इसका हिंदी अर्थ जब गूगल किया तो लिख कर आया ‘वस्तु’। आजकल हमारी फिल्मों में जो आइटम सॉन्ग हैं उसमें मुख्य भूमिका में कोई अभिनेत्री (एक स्त्री) होती है जो इस तरीक़े से नृत्य करती है जो मादक हो। समझ में यही आता है कि ‘आइटम’ शब्द का इस्तेमाल उस अभिनेत्री (एक स्त्री) के लिए हुआ है जो नृत्य कर रही है। यानी कि नृत्य करने वाली अभिनेत्री ‘वस्तु’ है। तो क्या वॉलीवुड या कोई भी स्क्रीन (टॉलीवुड, हॉलीवुड, वेब सीरीज आदि) स्त्री को ‘वस्तु’ समझती है। स्पष्ट है ऐसा पूरी तरह नहीं है, कुछ अपवाद हर जगह होते हैं लेकिन हम अभी अपवादों पर बात नहीं करेंगे, सामान्य एवं बहुप्रचलित मानसिकता यहां हमारी चिंता का विषय है।

अभी तक स्त्री विमर्श का पूरा संघर्ष यही रहा है कि स्त्री को वस्तु ना समझा जाए लेकिन मनोरंजन की पूरी दुनिया या यूं कहें कि इस बाजार ने महिला सशक्तिकरण (women empowerment) या स्त्री विमर्श की ओट में उसे प्रोडक्ट ही बना दिया है। इस मनोरंजन के उद्योग ने उसे आर्थिक रूप से सशक्त भी बनाया, लेकिन किस शर्त पर? ‘देह’ की शर्त पर। अपनी किताब ‘स्त्री-देह के विमर्श’ में सुधीश पचौरी लिखतें हैं कि “उसे बाज़ार ने चौके से निकाला है और इस तरह कुछ मुक्त किया है लेकिन तुरंत ही उसे बाज़ार में एक सेल्सगर्ल में बदल दिया है। इस तरह नए पूंजीवाद ने उसे एक ही साथ ‘मुक्त’ किया है और ‘कैद’ किया है।” इस तरह वह एक कैद से निकलकर दूसरी कैद में चली गयी है। जहां पर्दे की दुनिया से अपेक्षा यह थी कि वह औरत के चेहरे से पर्दा हटा कर उसे अपनी पहचान देता वहां वह उसे नंगा करके बाज़ार से पैसा कमाने को उतारू है।

यदि सिर्फ ‘आइटम सांग्स’ की बात करें तो ज्यादातर गानों में आप पाएंगे कि स्त्री पुरूषों की भीड़ के बीच नाच रही है और पुरूषों की वह भीड़ उस स्त्री को नृत्य जैसी कला का गुण होने की दृष्टि से प्रशंसक नहीं बनी बल्कि दृष्टि में कामुकता है जिसका स्रोत वह स्त्री है। जैसे-‘शूल’ फिल्म (1999) का गाना ‘मैं आईं हूं यूपी बिहार लूटने’ या फिर दबंग फिल्म (2010) का गाना ‘मुन्नी बदनाम हुई’ जिसमें एक अंतरा है कि ‘कैसे अनाड़ी से पाला पड़ा, बिना रूपैये के आके खड़ा, मेरे पीछे पड़ा’। इस दृश्य में एक बुजुर्ग नाच रही स्त्री के पीछे पड़ा है यानी कि वह बूढ़ा व्यक्ति बिना पैसे के कोई काम करवाना चाहता है प्रतीत ऐसा होता है जैसे वह बुजुर्ग भी उस स्त्री के प्रति कामुकता से भरा हुआ है। इसी गाने में एक पंक्ति है ‘आइटम ये आम हुई, डार्लिंग तेरे लिए’ इस दृश्य में कैमरा स्त्री के स्तन पर और दो पुरूष उसी तरफ घूरते हुए एक फ्रेम में आते हैं। ऐसे आप इंटरनेट पर सर्च करिए ‘आइटम सॉन्ग’ आपको ऐसे तमाम गाने मिल जाएंगे जहां एक स्त्री घाघरा चोली पहने पुरूषों के बीच में नाच रही है। ओंकारा फिल्म (2006) का गाना ‘बीड़ी जलइले जिगर से पिया’ से लेकर ‘बाटला हाउस’ (2019) के ‘ओ साकी साकी रे’, ‘सत्यमेव जयते’ (2018) के ‘दिलबर दिलबर’ गाने में स्त्री पुरूषों के कामुक नज़र घिरी हुई है। फिल्म का नाम तो ‘सत्यमेव जयते’ है लेकिन क्या स्त्री का सत्य सिर्फ उसका शरीर है? उसका सत्य सिर्फ यह है कि वह अपने शरीर से पुरूषों का मनोरंजन करे? क्योंकि ऐसे तो सत्य की जय नहीं हो सकती। यह सिनेमा का दोहरा चरित्र है। एक तरफ वह महिला का सम्मान करने की बात करता वहीं इन गानों के माध्यम से उसे अप्रत्यक्ष रूप से ‘वस्तु’ या ‘खाद्य सामग्री’ भी साबित करता है। जैसे ‘दबंग 2’ फिल्म का गाना ‘मैं तो तंदूरी मुर्गी हूं यार, गटका ले मुझे एल्कोहाल से’ । 

यदि बीच में नाचती स्त्री के पुरूषो की भीड़ से घिरे होने की बात हटाकर यदि सिर्फ कैमरे के कोण की बात करें तो के. आसिफ के डायरेक्शन में मुगल-ए-आजम फिल्म (1960) का गाना ‘जब प्यार किया तो डरना क्या’ में कैमरा मधुबाला (अनारकली) के शरीर के उतार-चढ़ावों पर न जाकर उनके नृत्य के दौरान के संवेगों को बखूबी दिखाता है, उनके चेहरे के हाव-भावों को दिखाता है। शकील बदायूंनी का लिखा गाना फिल्म की कहानी के अनुरूप ही है और प्रेम के गहरे भाव रखते हैं। गाने का प्रवेश भी फिल्म की कहानी के प्रवाह में ही आता है न कि आजकल के आइटम सॉन्ग की तरह बिना तुक ताल के। ऐसा ही हुआ है मुजफ्फर अली के डायरेक्शन में बनी फिल्म उमराव जान (1981) में। फिल्म के दोनों गाने ‘दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए’ और ‘इन आंखों की मस्ती के अफसाने हज़ारों हैं’ भी ऐसी ही उदाहरण है, जहां कला प्रधान लगती है।

अगर हम ये कहें कि ये सब सिर्फ मनोंरजन के लिए है तब मैं समझना चाहूंगा कि मनोरंजन के केंद्र में सिर्फ स्त्री ही क्यूं? जैसे दोस्तों का एक समूह है उसमें हंसी-मजाक होता रहता है लेकिन जब समूह में मनोरंजन के लिए हंसी सिर्फ एक ही शख़्स उड़ाई जाय तब ज्यादातर कारण होता है कि समूह के अन्य लोग उसे कमतर समझते हैं या फिर वह व्यक्ति (जिसकी बार-बार हंसी उड़ाई जा रही है) वह अपनी बात रखने में असमर्थ है या वह यह समझ नहीं पा रहा कि उसका इस्तेमाल हो रहा है। कुछ यही स्थिति फिल्म उद्योग में स्त्रियों के साथ भी है।

याद आता है कि बचपन में गांव में होने वाली शादियों में समृद्ध घरों में अक्सर पैसे देकर किसी स्त्री को नाच के लिए बुलाया जाता था, वह एक शान की बात मानी जाती थी और पीछे चर्चा होती थी कि ‘फलाने के हियां नचनिया आईं रहीं’। उस समाज में वह पुरूष अहं महसूस किया जा सकता था। घर की स्त्रियां ऐसी नाचने वाली स्त्रियों को सम्मान के भाव से नहीं देखती थी।

फिलहाल कई बार प्रश्न उठता है कि लोग ऐसी फ़िल्में देखने ही क्यों जातें हैं? ऐसी फिल्मों का बहिष्कार करना चाहिए, अगली बार से डायरेक्टर ऐसी फ़िल्में बनाना ख़ुद-ब-ख़ुद बंद कर देंगे। तो मुझे लगता है आप अपने समाज से कुछ ज़्यादा ही अपेक्षा कर रहें हैं। उस समाज से जहां की कथाओं में पांच पतियों के बीच की इकलौती पत्नी को भी जुए में दांव पर लगा दिया जाता है, बिना उसकी इच्छा जाने। ‘जाकी बिटिया सुन्दर देखी ता पर जाय धरी तलवार’ श्रेष्ठता और गर्व की बात मानी जाती थी। हमारा समाज जहां अपशब्दों (गलियों) का आधार औरत है। जहां पढ़ाई का उद्देश्य सिर्फ नौकरी पाना है। विश्व के 200 सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। भारत में 2021 में प्रतिदिन 86 बलात्कार के केस दर्ज हुए। अन्य ऐसे अनेक उदाहरणों के हमारे समाज में मौजूद होने के बाद भी आप इस समाज से यह अपेक्षा करें कि एक पढ़ा-लिखा,  कलात्मक डायरेक्टर अभिनेत्री की कला की जगह, उसके चेहरे पर आए हाय-भाव की जगह शरीर के उतार-चढ़ाव पर फोकस करे उसके बाद भी उपर्युक्त समाज देह पर न जाय यह अतिश्योक्ति होगी।

पर्दे की दुनिया एक कलात्मक संसार है। कलात्मकता का अर्थ है कि आप जानते हैं आपको अपनी बात कैसे कहनी है। बड़े शायर मुन्नवर राणा एक इंटरव्यू में कहते हैं कि हमने अपनी बात कह दी और जिसको समझना समझ भी गया जैसे – ‘मौसम में कुछ ख़ुनकी (ठंडक) है, आगे मर्जी उनकी है।’

पूरी बात कह भी दी गई और अशोभनीयता भी कहीं नहीं आई और बात जहां पहुंचनी थी पहुंच भी गई। लेकिन ऐसा करने का प्रचलन ख़तम होता जा रहा है। चूंकि कला रिपोर्टिंग नहीं है। अगर आप जस का तस कह रहें हैं तो हो सकता है वह वीभत्स हो जाए। दर्शक में नकारात्मकता पैदा कर दे। किसी भी कला का उद्देश्य यह नहीं हो सकता है। कला हमें यश देती है। यश मिलने का अर्थ है आपका व्यक्तित्व लोगों को प्रभावित करते हैं। अंग्रेजी में कहे तो आप ‘इन्फ्लुएंसर’ हैं। जब आप किसी को भी प्रभावित करने लगते हैं तो यह अपने में एक जिम्मेदारी लेकर आती है। यह वैसे ही है जैसे एक नेता का बयान देश में दंगे करवा भी सकता है और दंगों को शांत भी करवा सकता है। सामान्यत हमारा समाज अपने से, जिसे अपने से श्रेष्ठ मानते हैं, उसे अनुकरण (फॉलो) करता है। इस नैतिक जिम्मेदारी को समाज में जितने भी अग्रणी लोग हैं उन्हें समझना चाहिए। खासकर प्रभावशाली लोगों पर यह जिम्मेदारी ज़्यादा है कि आप अपने देश को बेहतर बनाने के लिए क्या योगदान दे रहे हैं? अम्बेडकर कहते हैं- “मैं किसी समुदाय की प्रगति उस समुदाय की महिलाओं की प्रगति के आधार पर मापता हूं।” हमारे देश की प्रगति भी महिलाओं की प्रगति के साथ ही हो सकती है क्योकि वह देश की आबादी का लगभग 50% हैं।  महिलाओं की प्रगति तभी संभव है जब उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान मिले और यह तभी संभव है हम स्त्री को देह के इतर भी समझेंगे। तब हम पाएंगें कि वे मल्टीटास्कर हैं, उनका मैनेजमेंट कहीं बेहतर है। तब हम पाएंगें कि वे ‘आइटम’ नहीं हैं, ‘माल’ नहीं हैं, ‘वस्तु’ नहीं है।

*लेखक शोधार्थी हैं। हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय।