नूतन की बंदिनी, सुजाता अब नहीं बन सकती… आज की महिला डायरेक्टर्स ने सारा सीन बदल दिया

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Nutan Actress
सुजाता फिल्म में नूतन

प्रहलाद अग्रवाल

हिंदुस्तानी सिनेमा में औरत हमेशा बहुत महत्वपूर्ण रही है। इसे सुजाता, बंदिनी या फिर मदर इंडिया जैसी फिल्मों में देखा जा सकता है। सिर्फ अभिनय के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि कथा के आधार के क्षेत्र में भी औरत का अहम स्थान रहा है। तब विषय जुदा थे, धरातल अलग थे, मान्यताएं अपने ढंग से बदल रही थीं। मगर बदलते समय के साथ-साथ औरत का मू्ल्य हिंदुस्तानी सिनेमा में कभी कम नहीं हुआ। मीना कुमारी ने जो भूमिकाएं अदा की, उस दौर में जैसी भूमिकाएं लिखी गईं और पर्दे पर दिखाई गईं, संभव है आज की बहुत-सी महिलाएं उनमें से बहुत से किरदारों से असहमत हो सकती हैं। आज ‘मैं चुप रहूंगी’ की नारी बनना शायद की कोई स्त्री पसंद करे। परंतु वह उस समय का सत्य था। वह कहानी उस समय के समाज के हिसाब से लिखी गई थी।

उस समय का समाज उसमें रम जाता था और उसे अपना लेता था। यही वजह थी कि मीना कुमारी उस दौर में अत्यंत सफल हुईं। उनके साथ फिल्में बनाने वाले फिल्मकार भी सफल हुए। इस बहाने भी उस दौर में औरत की एक महत्वपूर्ण स्थिति बनी रही। इस महत्वपूर्ण स्थिति के बनने के बाद ही कोई ऐसी सशक्त फिल्म बनती है जो बहुत लंबे समय तक प्रभावित करती है। ऐसा कत्तई नहीं होता कि सैकड़ों फिल्में एक साथ बहुत अच्छी बन जाती हैं। साल में बमुश्किल चार या पांच फिल्में ही होती हैं जो अत्यंत सफल होती हैं। अगर साल में दो-तीन फिल्में भी ऐसी बन जाएं जो समाज को प्रभावित कर सकने वाली हों तो ये उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि कही जाएगी।

हम समझते हैं कोई कलाकृति ऐसी हो सकती है जो लाखों, करोड़ों लोगों को प्रभावित ही ना करे बल्कि विचलित भी कर दे कि वे उसको या उसके संदेश को आत्मसात करने के लिए तैयार हो जाएं। ऐसी स्त्रियां अपने भौतिक रूप में, अपने आध्यात्मिक रूप में और अपने कथात्मक रूप में हिंदुस्तानी सिनेमा में हमेशा मौजूद रही हैं।  एक से एक विलक्षण सिनेमा इसमें तैयार हुआ। बिमल रॉय की सुजाता को कभी नहीं भूला जा सकता। उस समय फिल्मकार बड़ी से बड़ी सामाजिक समस्या को बहुत ही कोमल तरीके से उठाकर बहुत ही शक्ति के साथ लोगों को झकझोर देते थे। एक ब्राह्मण घर में एक अछूत स्त्री पलती है। उस स्त्री का अपना संघर्ष है। उस फिल्म में एक प्रकार से जाति प्रथा पर अंतरआत्मा से किया गया प्रहार था। हालांकि यह कोई बहुत बड़ी हिट फिल्म नहीं थी। लेकिन इसे काफी लोगों ने देखा और इसके संदेशों को समझा था।

इसके बाद बिमल रॉय ने बंदिनी बनाई। इसमें भी नूतन थीं। बिमल रॉय की बंदिनी में भी नारी शक्ति को अभूतपूर्व तरीके से प्रणाम किया गया है। बंदिनी में एक स्त्री की बाह्ययात्रा को उसकी अंतरयात्रा के साथ जिस तरह से जोड़कर  बिमल रॉय ने प्रस्तुत किया है, वह अविस्मरणीय है। किस तरह एक स्त्री यहां बंदिनी का एक रूपक बन जाती है। वह समाज के बंधन से कहीं ज्यादा मन के बंधन से बंधी होती है। मगर समाज और मन के बंधन के उस पार जाकर सबसे बड़ा उसका प्रेम का बंधन है।

हिंदी में तमाम ऐसी फिल्में हैं जहां नारी की गरिमा और शक्ति को स्थापित किया गया है। मैं मानता हूं कि कुछ फिल्मों के बारे में हमारी साहित्यिक सहानुभूति होती है, या कहें कि किसी किसी फिल्म के साथ हमारी विचारवादी सहानुभूति हो जाती है-ऐसी फिल्मों को हम बहुत महत्व देते हैं परंतु उन फिल्मों को जिसकी कहानी सीधे जिंदगी से उठाई गई होती है, हम अक्सर उसे भूल जाते हैं, नकार देते हैं। खासतौर पर प्रेम, रस और आनंद के भाव को हम उपेक्षित कर देते हैं। यही वजह है कि हमारा सिनेमा आज दम तोड़ रहा है। इतनी लंबी खाई हिंदी सिनेमा में कभी नहीं रही, जितनी पिछले दस सालों में देखी जा सकती है। ऐसा नहीं है कि अच्छी फिल्में नहीं आईं लेकिन ऐसी फिल्म नहीं आई जो एनिमल का मुकाबला कर सके, जवान का मुकाबला कर सके, जो पठान का मुकाबला कर सके, जो बढ़ती हुई हिंसा का मुकाबला कर सके।

इस बीच ऐसा समझा गया था कि राजकुमार हिरानी डंकी से उस दुश्चक्र को तोड़ सकेंगे लेकिन वे भी उस रूप में बहुत सफल नहीं हो सके, जैसी सफलता उन्होंने अपनी पहले की फिल्मों के जरिए पाई थी। क्योंकि इस फिल्म में भी स्त्री पक्ष तो था लेकिन स्त्री का वो उजास नहीं था जो उनकी हर फिल्म में एक अलग सौंदर्य बोध और विचार बोध के साथ दिखता रहा है। एक तरह से देखें तो समूचा फिल्म परिवेश इस प्रकार के बोध से युक्त रहा है। राज कपूर की आवारा और श्री420 जैसी फिल्में भले ही उनके व्यक्तित्व का प्रभाव लिये हुये थीं, भले ही वे पुरुष मानसिकता की फिल्में थीं लेकिन उन फिल्मों में भी स्त्रियां पुरुषवादी अहंकार के आगे खड़ी हो जाती थीं और अपने किरदार में बता देती थीं कि तुम हमारे अभाव में कुछ नहीं हो। चाहे वह नरगिस की भूमिका हो या ललिता पवार का किरदार। ललिता पवार को भी अगर श्री420 से हटा दिया जाये तो फिल्म की कहानी और मैसेज को भारी नुकसान पहुंचा सकता है। 

Female lead Hindi Films
कुछ प्रमुख महिला किरदार

तो हिंदी सिनेमा के पर्दे पर ऐसी तमाम स्त्रियां देखने को मिलती रही हैं जो केवल पैसे की बदौलत बड़ी नहीं कहलातीं, सौंदर्य से बड़ी नहीं बनतीं बल्कि अपने परिश्रम और उजास से बड़ी बनती हैं। लेकिन आज की तारीख में सिनेमा में इसकी बड़ी कमी महसूस की जा रही है। इसी कमी से हमारा सिनेमा आज लड़खड़ा रहा है। परंतु मैं आशावान हूं कि ऐसी स्त्रियां सिनेमा के पर्दे पर फिर देखने को मिलेंगी। मुझे ऐसी स्त्रियां भी देखने को मिलेंगी जो केवल बाहरी तौर पर सशक्त नहीं होंगी, जो केवल शहर में नौकरी कर लेने भर या आर्थिक स्वाबलंबन को ही संपूर्ण सार्थक नहीं मानेगी बल्कि आंतरिक शक्ति से भी लैस होगी। जो ये समझेंगी कि साधन साध्य से बहुत छोटे हैं। हमारे आदिकाल, हमारे पौराणिक वचनों से लेकर पूरे जीवन के चित्रण तक में इसके नजीर मिल जायेंगे। यह प्रवृति हमारे हर समय के सिनेमा में मौजूद रही है। लेकिन आज इसकी बड़ी कमी है इसीलिए शायद आज हमें एनिमल की स्त्री देखने को मिलती हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे सिनेमा में प्रारंभ से ही पुरुष वर्चस्व देखने को मिला है। लेकिन उन पुरुषों की चेतना में स्त्रियों के प्रति भी गहरी संवेदना रही है। गहरा सम्मान भाव था। इसके बावजूद कुछ हद तक सिनेमा में पितृसत्तात्मकता बनी रही। लेकिन हमारे यहां बाजारवाद के आगमन के बाद पितृसत्तात्मकता को एक प्रकार से चुनौती दी गई। आज के सिनेमा में देखें तो पितृसत्तात्मकता को चुनौती देने की प्रवृति करीब नब्बे फीसदी फिल्मों में देखी जा सकती है। अब कोई प्रेम के लिए संघर्ष करने को तैयार नहीं है। अब कोई देवदास पर यकीन करने को तैयार नहीं है। इसीलिए अनुराग कश्यप देवडी बनाते हैं और सुधीर मिश्रा दास देव। आज के समाज ने नब्बे के पहले के दशक के समाज को उलट दिया है। आज स्त्रियां आगे ही नहीं बढ़ रही हैं बल्कि नये परिदृश्य को भी गढ़ना चाहती हैं। 

आज महिला फिल्ममेकर्स में देखें तो सईं परांजपे, दीपा मेहता, मीरा नायर, कल्पना लाजमी, अपर्णा सेन, अरुणा राजे, नंदिता दास, मेघना गुलजार, जोया अख्तर, अलंकृता श्रीवास्तव, अश्विनी अय्यर तिवारी, किरण राव जैसी प्रतिभाओं ने हिंदी सिनेमा के पुरुष वर्चस्व और पितृसत्तात्मक मानसिकता को चुनौती देते हुए कई अहम फिल्में बनाई हैं। कितनी फिल्मों के नाम गिनाऊं। सबका दायरा अलग है, सब में अलग-अलग किस्म की बेचैनियां और परिवेश हैं। लेकिन एक बड़ी कमी इन फिल्मों में भी देखने को मिली है और वह है-रस बोध।  बिना इसके कोई कैसे कालजई फिल्म बना सकता है।• (लेखक प्रख्यात फिल्म इतिहासकार और विश्लेषक हैं। सिनेमा पर कई किताबें प्रकाशित। सतना में निवास।) 

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