पहले से पावरफुल हुए फिल्मों के पीआर… प्रोवाइडर से कैसे बन गए डिसाइडर?

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-अजय ब्रह्मात्मज

21वीं सदी में फिल्में कला माध्यम से अधिक कारोबार हो चुकी हैं। नए-पुराने सभी फिल्मकार फिल्म बनाने से पहले यह तय करते हैं कि उसके दर्शक कौन होंगे और उसकी ‘पोजीशनिंग’ क्या होगी? इसके साथ ही उसकी मार्केटिंग और पीआर का काम शुरू हो जाता है। इस सदी में पीआर बहुत फैल गया है। कोशिश रहती है कि हर युक्ति से दर्शकों को रिझाया जाए। उन्हें पहले दिन सिनेमाघरों में आने के लिए उद्दीप्त किया जाए। सभी जानते हैं कि इन दिनों रिलीज के सप्ताहांत के कलेक्शन से फिल्म के कारोबार का भविष्य तय हो जाता है। बहुत कम फिल्में ऐसी होती हैं जो रिलीज के अगले हफ्ते सोमवार से चढ़ना शुरू कर दर्शकों की पसंद बनती हैं। अभी तक तो यही ट्रेंड रहा है कि रोचक विषयों की मनोरंज‍क फिल्में ही सोमवार के बाद चर्चा में आती हैं। ये फिल्में लंबे समय तक सिनमाघरों में टिकती हैं और ठीक-ठाक कारोबार कर जाती हैं। आज की शब्दावली में कहें तो वे निर्माताओं को ‘मुनाफा’ दे जाती हैं। 

अजय ब्रह्मात्मज

सृजन के साथ मुनाफा जुड़े होने की वजह से हिंदी फिल्मों के आरंभिक दौर से ही प्रचार पर जोर दिया जा रहा है। हां, समय के बदलाव के साथ इसकी प्रक्रिया और प्रभाव में भी बदलाव आया है। फिर भी मुख्य उद्देश्य यही रहता है कि संभावित दर्शकों को आकर्षित किया जाए। उन्हें सिनेमाघरों में आने के लिए प्रेरित किया जाए। भारत में पहली बार चलती-फिरती तस्वीरों यानी सिनेमा का प्रदर्शन हुआ था तो मुंबई के अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में उसका विज्ञापन छपा था। 7 जुलाई 1896 के अखबार में छपे विज्ञापन में लिखा गया था… द मार्वेल ऑफ द सेंचुरी, द वंडर ऑफ द वर्ल्ड, लिविंग फोटोग्राफिक पिक्चर्स इन लाइफसाइज रिप्रोडक्शन बाय मेसर्स लुमिएर ब्रदर्स… इस शो के टिकट का दाम एक रुपया था। दादा साहेब फाल्के और सावे समेत मुंबई की अनेक हस्तियों ने फिल्म देखी। 1896 में 1 रुपया खर्च करने की शक्ति शहर के उच्च वर्ग में ही थी, इसलिए विज्ञापन अंग्रेजी अखबार में छपा।

आज भी सिनेमा के प्रचार और विज्ञापन में दर्शकों के प्रोफाइल के हिसाब से ही रणनीति और योजनाएं बनती हैं। हिंदीभाषी समाज और हिंदीप्रेमी हिंदी फिल्मी हस्तियों के अंग्रेजी प्रेम से बहुत नाराज रहते हैं। सच्चाई यह है कि आज भी हिंदी फिल्मों के दर्शक अंग्रेजी मीडिया के जरिए ही जानकारी जुटाते हैं। जब हिंदी प्रदेशों के दर्शक अधिसंख्यक थे तो सारे कार्य व्यापार और प्रचार में हिंदी पर जोर रहता था। धीरे-धीरे अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ा और हिंदी प्रदेशों के दर्शक कम हुए तो प्रचार का बड़ा हिस्‍सा अंग्रेजी पर निर्भर हो गया। सितारे इंटरव्यू और मीडिया इंट्रेक्शन में अंग्रेजी को प्रश्रय देने लगे। यह एक अलग अध्ययन का विषय हो सकता है।

देश के अंदरुनी इलाकों में आज भी मेले लगते हैं। इन मेलों में नाच, नौटंकी और सर्कस के तंबू लगते हैं। साउंड सिस्टम जैसी तकनीकी सुविधाओं के ईजाद के पहले ढिंढोरची मेले में घूम-घूम कर शो के समय और खासियत के बारे में बताया करते थे। मेले घूमने आए लोगों को वे ऐसे प्रचार से अकर्षित करते थे। सिनेमा के प्रसार के आरंभिक दिनों में प्रचार का यही तरीका प्रदर्शकों ने अपनाया। मुंबई और लाहौर में सिनेमाघरों के मालिक ढोलकियों को इस काम में लगाते थे। गाजे-बाजे के साथ जुलूस निकलता था। सिनेमाघर के आसपास और शहर की गलियों से गुजरता हुआ यह समूह प्रदर्शित फिल्‍म का प्रचार करता था। जुलूस का जोर इतना बढ़ा कि शहर की शांति भंग होने लगी तो मुंबई और लाहौर के नागरिकों ने प्रशासन पर इसे बंद करने का दबाव डाला।

कलेक्टर के आदेश से पाबंदियां लगीं। फिर प्रचार के और तरीके खोजे गए। अखबारों और फिल्मों की पत्रिकाओं में बॉक्स विज्ञापन दिए जाते थे। वितरक फिल्म के प्रचार पर फोकस करते थे और प्रदर्शक अपने सिनेमाघर की शो टाइमिंग बताते थे। इनके अलावा दीवारों पर पोस्टर लगाने का चलन बढ़ा। होर्डिंग प्रचार की इसी होड़ के नतीजे के रूप में सामने आया। टीवी के आने के पहले छोटे शहरों में दीवारों पर चिपके पोस्टर, सिनेमाघर के लॉबी कार्ड और पोस्टर ही अगली फिल्मों के बारे में बताते थे। एक समय था कि दर्शक लॉबी कार्ड से ही अगली फिल्मों के बारे में कयास लगाते थे। उन तस्वरों को देख कर ही वे तय करते थे कि अगली फिल्म देखनी है कि नहीं?

पत्र-पत्रिकाओं के प्रसार के बाद उनमें फिल्मों के विज्ञापन के साथ फिल्मी बातों, गपशप, इंटरव्यू और फीचर का चलन बढ़ा। कोशिश की जाने लगी कि फिल्मों से संबंधित जानकारी पत्र-पत्रिकाओं में दी जाए ताकि छोटे-बड़े शहरों के पाठक (दर्शक) फिल्म के बारे में जानकारियां हासिल कर सकें। यह वही दौर था जब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में स्‍टूडियो खत्म हो रहे थे और स्टार सिस्मट जन्म ले रहा था। दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, नरगिस, मधुबाला, मीना कुमारी और नूतन जैसे कलाकार पर्दे से निकल कर दर्शकों के मानस में घर बना रहे थे। उन दिनों आज की तरह सितारों की छवि नहीं निखारी जाती थी, मगर यह खयाल रखा जाता था कि उनके बारे में अच्छी अच्छी बातें बताई जाएं। हां, कभी-कभार उनसे संबंधित विवाद और अनबन की कहानियां भी प्रकाशित होती थीं।

फिल्म पत्रकारिता गॉसिप पर निर्भर नहीं थी और फिल्मों के पीआर का काम सिर्फ चटखारे की सूचनाएं देना भर नहीं था। आजादी के पहले और बाद की फिल्म पत्रकारिता और पीआर गतिविधि में साफ फर्क दिखता है। पहले प्रचार सिर्फ फिल्मों पर केंद्रित रहता था। आजादी के बाद यह फिल्मों के साथ स्टारों को भी लाइमलाइट में रखने लगा। उसके दुष्परिणाम  या गुणनफल के रूप में आज की फिल्म पत्रकारिता का भ्रष्ट और टकसाली रूप दिख रहा है। अब सारा ध्यान सितारों की जीवन शैली पर है। वे फिल्मों से अधिक ‘कंज्यूमर प्रोडक्‍ट’ बेचने के लिए इस्तेमाल होने लगे हैं। यह भी सच है कि लोकप्रिय स्टारों की कमाई का बड़ा हिस्सा ‘एंडोर्समेंट’ से आ रहा है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आगमन और अखबारों के रंगीन होने के बाद फिल्म पत्रकारिता और पीआर गतिविधियों में तेजी से परिवर्तन आया। माना गया कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पहुंच प्रभावकारी है। वह दर्शक तैयार करती है। नतीजतन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को तरजीह दी जाने लगी। याद करें तो पिछली सदी के आखिरी दशक और 21वीं सदी के पहले दशक तक में हर न्यूज़ चैनल पर फिल्मों से संबंधित विशेष कार्यक्रम होते थे। अब यह बंद हो चुका है। इन दिनों केवल सलमान खान के केस या कंगना-रितिक विवाद जैसे मामलों के समय ही इलेक्ट्रॉनिक मीडियम की तत्परता दिखती है।

अखबारों के रंगीन होने के साथ उनके फिल्मी फीचर पेज बने। उनमें फिल्मों और फिल्मी सितारों की बड़ी तस्‍वीरें छपने लगीं। ट्रेलर या झलक के नाम पर पांच-छह तस्वीरों के साथ आधे पृष्ठ में फिल्मों की चित्रात्मक जानकारी दी जाती थी। दो दशकों के प्रचलन के बाद पिछले पांच सालों में अब इनके स्वरूप में बदलाव आया है। चित्र और लेख छोटे हो गए हैं। पहले एक पृष्ठ में एक कलाकार या एक फिल्म की जानकारी छपती थी। अब एक पृष्ठ में सात से आठ फीचर समा जाते हैं।

फिल्मों के आरंभिक दिनों से ही फिल्मों में पीआर रखे जाते रहे हैं। उन्हें जनसम्पर्क अधिकारी, पीआरओ, मीडिया संयोजक, प्रचार व्यवस्थापक आदि नामों से पुकारा जाता रहा है। पहले उनका काम अपेक्षाकृत आसान था। अधिक दवाब नहीं रहता था। फिल्म के महूरत के समय से उनका काम आरम्भ होता था। शूटिंग कवरेज, म्यूजिक रिलीज़, स्टार और डायरेक्टर के इंटरव्यू और फिल्म के प्रीव्यू तक उन्हें मीडिया के संपर्क में रहना पड़ता था।

एक पुराने पीआर ने कभी बताया था कि उन्हें फिल्मों की समीक्षा का अतिरिक्त ध्यान रखना पड़ता था। बड़े अख़बारों के समीक्षकों को खुश रखना पड़ता था। अब ऐसी बात नहीं रह गई है, लेकिन माना जाता है कि अगर अख़बार के साथ टाई-अप है तो रिव्यू आसानी से मैनेज होते हैं। या अगर टाई-अप नहीं है तो बुरे रिव्यू भी आ सकते हैं। तब पीआर की कोशिश रहती थी कि कोई भी फिल्म पत्रकार नाराज़ न हो और उसकी ज़रूरत के हिसाब से इंटरव्यू और फोटो मिलते रहें। यहां एक उल्लेख करना ज़रूरी है कि दो दशक पहले तक हिंदी के फिल्म पत्रकारों को तवज्जो नहीं दी जाती थी। पीआर उनका ख्याल नहीं रखते थे। दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह उनसे व्यवहार होता था। फिल्म सितारे भी उन्हें पर्याप्त समय नहीं देते थे।

हिंदी अख़बारों की प्रसार संख्या बढ़ने के बाद थोड़ा बदलाव आया। प्रचार और मार्केटिंग के हिसाब से हिंदी अख़बारों को जरूरी समझा गया। खास कर दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर के प्रतिनिधियों को महत्व दिया जाने लगा। अभी हिंदी के सभी बड़े अख़बारों में फिल्म कवरेज करवाया जाता है। भले ही उनमें से ज़्यादातर को एक ग्रुप के तौर पर बुला कर सामूहिक इंटरव्यू दिया जाता हो। इस तरह का प्रयास और अभ्यास अतीत में भी होता रहा है।

फिल्मों के प्रचार में सोशल मीडिया के आगमन के बाद भारी बदलाव आया है। पीआर की जिम्मेदारियां और काम के आयाम बदल गए हैं। उन्हें मीडिया को फीडबैक देने के साथ इस बात के लिए भी चौकस रहना पड़ता है कि कहीं उनके स्टार और फिल्म के खिलाफ माहौल नहीं बन रहा हो। अभी ज़्यादातर स्टार फेसबुक, इंस्टाग्राम और  ट्वीटर (अब एक्स) पर हैं। वे अपने प्रशंसकों और दर्शकों से सीधे इंटरैक्ट करते हैं। कुछ के फॉलोवर तो अनेक अख़बारों से ज़्यादा हैं। एक तरह से उन्हें किसी मीडिया की ज़रुरत नहीं रह गयी है। यह अहंकार उनके पोस्ट और स्टेटस में दिखता है। सोशल मीडिया के इस दौर में फर्स्ट लुक, ट्रेलर, प्रोमो सीधे जारी किये जा रहे हैं। पहले की तरह इवेंट, लांच और आयोजन लगातार सिमटते जा रहे हैं। कहा नहीं जा सकता कि पीआर और मीडिया के हिसाब से यह अच्छा है या बुरा।

इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब सारा ज़ोर सूचनाओं पर है। पत्रकार अपनी अंतर्दृष्टि या नज़रिये का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। पीआर की भेजी प्रेस विज्ञप्ति बेशर्मी के साथ ‘कट-पेस्ट’ की जा रही है। पहले पीआर प्रोवाइडर हुआ करते थे,अब वे डिसाइडर हो गए हैं। फिल्म के निर्माता, निर्देशक और स्टार से पत्रकारों का सीधा संपर्क बंद हो चुका है। वे कवच की तरह उन्हें ढके रहते हैं। उनके सामने और मौजूदगी में ही इंटरव्यू होते हैं। एक भी सवाल अगर उन्हें नागवार गुजरा तो इंटरव्यू बंद हो सकता है। कई बार तो स्टार जवाब देना चाहते हैं, लेकिन पीआर उनके कथित हित में उनका मुंह बंद कर देते हैं। सब कुछ नियोजित और पूर्व निर्धारित हो चुका है। इन दोनों इंटरव्यू में रिकॉर्डर कैमरे भी नियंत्रित किया जा रहे हैं। पीआर एजेंसी पत्रकारों के लिए इंटरव्यू को एडिट कर उन्हें भेजते हैं। उन्हें जो अवांछित या अनावश्यक लगता है, उसे वे काट देते हैं।

इन दिनों फिल्मों की योजना से लेकर फिल्मों की रिलीज़ तक सोशल मीडिया पर फिल्म से सम्बंधित स्टार और बाकि लोग एक्टिव रहते हैं। यूट्यूब पर जारी ट्रेलर और गानों पर मिले हिट की जानकारी प्रचारित की जाती है। हालांकि फिल्म की कमाई पर इस हिट का खास असर नहीं होता, क्योंकि करोड़ों हिट के ट्रेलर को कई बार लाखों दर्शक भी नहीं मिल पाते। फिर भी हर फिल्म की रिलीज के समय हिट के आंकड़ों से दर्शकों को आतंकित और आकर्षित किया जाता है। कई बार यह वर्क भी कर जाता है। होता क्या है कि सीधा-सादा आम दर्शक प्रचार के झांसे में आ जाता है। बड़ी सेलिब्रिटी अपनी बिरादरी, लॉबी या जान-पहचान के फ़िल्मकार की झूठी तारीफ से दर्शकों को बरगलाते हैं। कई बार ऐसे प्रचारात्मक और सकारात्मक ट्वीट की बढ़ आ जाती है। ऐसा होने पर स्पष्ट हो जाता है कि फिल्म को दर्शक नहीं मिलेंगे। वह सिनेमाघर में दाखिल हो जाता है। पहले दिन की सिनेमाघर में उसकी मौजूदगी काउंट हो जाती है। अनेक पत्रकार नासमझी में रिटेल प्रचारक बन जाते हैं। वे फिल्म सेलिब्रिटी के लिंक शेयर करते हैं और अपने फॉलोवर से उक्त ट्रेलर या गाने के हिट बढ़ा देते हैं। यह बड़ी हस्तियों के ‘गुड बुक’ में बने रहने के लिए भी किया जाता है।

सच्चाई यह है कि उन्हें खबर भी नहीं रहती और पत्रकार सपोर्ट के मुगालते में रहता है। सोशल मीडिया के इस दौर में पीआर ट्वीट लिख कर लिंक के साथ भेजने लगे हैं। उनका आग्रह रहता है कि इसे शेयर करें। यह आग्रह कुछ-कुछ आदेश के स्वर में रहता है। अगर पत्रकार उनके भेजे सन्देश को ट्वीट नहीं करता तो वे बदले के रूप में उसकी मांगों को टाल जाते हैं। उसे महत्व नहीं देते. इन दिनों पीआर जम कर पत्रकारों के हाथ मरोड़ रहे हैं। उनकी मनमानी चल रही है। नतीजा यह हो रहा है कि फिल्म अपनी क्वालिटी से दर्शक नहीं जुटा रही है। यकीन करें पत्रकार बंधन में नहीं रहते तो खुद के विवेक से बेहतरीन राइटिंग करते हैं। उनकी तारीफ में दम होता है और आलोचना भी तार्किक होती है।

इन दिनों कोई भी किसी से सवाल नहीं कर रहा है। कठघरे में खड़े करने की हिम्मत तो छोड़ें। कोई निगेटिव भी नहीं लिखना चाहता। फिल्म रिव्यू की यह हालत हो गयी है कि पीआर के इशारे पर निर्माता की चाहत के लिए चार-चार स्टार दिए जा रहे हैं। शनिवार को रिव्यू ऐड में नाम छापा जाता है। कुछ समीक्षक सिर्फ इस नाम के लिए फिल्मों के रिव्यू में स्टार टांके जा रहे हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं। लेखक प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक, अनुवादक और यूट्यूबर हैं। सिनेमा पर कई पुस्तकें लिखी हैं। मुंबई में निवास। संपर्क–[email protected] / [email protected] https://youtube.com/@ CineMahaul)

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