साहित्य, कला और सिनेमा… जवरीमल्ल पारख की नई किताब जो फिल्मों की समझ बढ़ाती है

साहित्य, कला और सिनेमा पर जवरीमल्ल पारख की नई पुस्तक
साहित्य, कला और सिनेमा पर जवरीमल्ल पारख की नई पुस्तक

-अजय ब्रह्मात्मज* 

इन दिनों हिंदी और अन्य भाषाओं की सिनेमा पर काफी कुछ लिखा जा है। उन्हें देखते हुए जवरीमल्ल पारख की नई पुस्तिक ‘साहित्य, कला और सिनेमा: अंत:संबंधों की पड़ताल’ काफी अहम हो जाती है। मीडिया और सोशल मीडिया पर सिनेप्रेमी नई-पुरानी फिल्मों को देखने के बाद अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हैं। यूं लगता है कि हर दर्शक एक समीक्षक है और फिल्मों का गहन जानकार। सोशल मीडिया पर ऐसे अनेक समीक्षक कौंधते हैं। कुछ

 समय तक उनकी चमक बनी रहती है और फिर अचानक भी अपने दूसरे कामों में मशगूल हो जाते हैं। अगर आप उन्हें पढ़ना आरंभ करें तो स्पष्ट हो जाता है कि उनकी जानकारियां विकिपीडिया या उनके जैसे ही किसी तुरंता समीक्षकों की टिप्पणियों से प्रेरित और प्रभावित है। एक चलन और बढ़ा है। कुछ लेखक कलाकारों के जन्म और मृत्यु के दिन भावपूर्ण लेख लिखते हैं। पूरा अंदाज यह रहता है कि जैसे वे पुराने कलाकार के पड़ोसी रहे हों और उनके जीवन की हर गतिविधि से परिचित हों। ऐसे लेखों में करुणा और सहानुभूति जगाने की कोशिश रहती है। ऐसे लेखों का निचोड़ कुछ भी नहीं निकलता। सालों से सुनी और पढ़ी जा रही घटनाओं को वे भाषा की चाशनी में लपेटकर परोस देते हैं।

इन दिनों सिनेमा पर किताबें भी खूब छप रही हैं। ज्यादातर किताबों के 8-10 पन्ने पलटने पर समझ में आ जाता है कि लेखक ने इधर-उधर से सामग्रियां जुटाकर उन्हें संकलित कर दिया है। इस कार्य में विश्वविद्यालय और मीडिया संस्थानों के अध्यापक जुटे हुए हैं। ऐसे में बहुत मुश्किल हो जाता है अच्छी किताबों को चुनना और उनका अध्ययन करना। संतोष है कि कुछ लेखक और चिंतक निरंतर सिनेमा पर विशिष्ट लेखन कर रहे हैं। मैं यहां जवरीमल्ल पारख का विशेष उल्लेख करना चाहूंगा। उनकी नई पुस्तक ‘साहित्य कला और सिनेमा अंत:संबंधों की पड़ताल’ वाम प्रकाशन से आई है। यह पुस्तक अपने कवर और कंटेंट से आकर्षित करती है। उनकी यह पुस्तक साहित्य और सिनेमा के संबंधों की गहराई से व्याख्या करती है। हिंदी के पाठकों, अध्येताओं और शोधार्थियों के बीच का एक प्रिय विषय है ‘साहित्य और सिनेमा’। हर साल कम से कम 5-6 दर्जन शोध तो हो ही जाते होंगे। हर शोध में सिनेमा की लानत-मलामत की जाती है। मानव सभ्यता की इस अपेक्षाकृत नए माध्यम प्रति शोधकर्ता और उनके निर्देशकों का हेय भाव हावी रहता है।

जवरीमल्ल पारख की पुस्तक ‘साहित्य कला और सिनेमा अंत:संबंधों की पड़ताल’ साहित्य और सिनेमा के संबंधों के हर पहलुओं पर विस्तार से विवेचना करती है। पुस्तक में चार खंडों में 14 शीर्षकों से सिनेमा और साहित्य से संबंधित विषयों को क्रमवार तरीके से प्रस्तुत किया गया है। यह पुस्तक तथ्यपूर्ण होने के साथ भारतीय फिल्मों के उदाहरण देता है। लेखक ने पूरी कोशिश की है कि पाठकों को सारे संदर्भ और आवश्यक तथ्य मिल जाएं। यह फिल्म पर लिखने वाले सभी लेखकों के लिए अत्यंत उपयोगी और जरूरी पुस्तक है। लेखक ने सिनेमा के सैद्धांतिक और तकनीकी पक्षों पर भी विचार किया है। यह पुस्तक सिनेमा को एक कला माध्यम के साथ-साथ वर्तमान समय के लिए उपयोगी मीडियम के तौर पर पेश करती है। इसे पढ़ने के बाद आप अवश्य ही सिनेमा के प्रति अधिक समझदार हो जाएंगे। लेखक ने ऐतिहासिक संदर्भों के साथ हिंदी फिल्मों के विकास के बारे में बताया है।

इस पुस्तक की एक खासियत और है। आप इसके किसी भी खंड को पलट कर पढ़ सकते हैं। तात्पर्य यह कि पिछले और अगले पृष्ठों की कड़ी में होने के बावजूद भिन्न शीर्षकों के अंतर्गत विवेचित विषयों को स्वतंत्र और पूर्ण भी रखा गया है। अब जैसे कि साहित्य और सिनेमा के अंतर को स्पष्ट करने के लिए दोनों माध्यमों की बारीकियों और विशेषताओं का सप्रसंग उल्लेख किया गया है। लेखक के विशद अध्ययन से आपूरित ये लेख विवेचित विषय का समग्र आकलन करते हैं। यह पुस्तक सिनेमा के विद्यार्थियों और संभावित लेखकों के लिए अनिवार्य और अपरिहार्य पाठ है।

जवरीमल्ल पारख ने सिनेमा और साहित्य के अध्ययन और विश्लेषण में साहित्य के निकष और उपमानों के साथ सिनेमा के तकनीकी परिष्कार और सुविधाओं के महत्व को रेखांकित किया है। उन्होंने दोनों की खूबियों को समन्वित ढंग से पढ़ने और समझने पर जोर दिया है। वे सिनेमा के नियमित दर्शक हैं। उन्हें साहित्य और इतिहास की जानकारी है। वे विषयों के विश्लेषण में सामाजिक और ऐतिहासिक पहलुओं को साथ रखते हैं। इस वजह से सभी विषयों की समुचित और सामयिक समझ बनती है।

आज के परिवेश में इस पुस्तक के दूसरे खंड का महत्व प्रासंगिक हो गया है। भारतीय खास कर हिंदी सिनेमा के विकास में देश के सांस्कृतिक क्षेत्र में हर प्रगतिशील आन्दोलन का परिप्रेक्ष्य पाठकों की दृष्टि को विस्तार देगा। बीच में एक मुहिम चली थी और अभी दक्षिणपंथी समझ की लगातार आ रही फिल्मों से यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि हिंदी फ़िल्में प्रगतिशीलता के नाम पर सेक्युलर मिजाज की कहानियां थोपती रही हैं, जबकि भारतीय समाज का यही मूल स्वभाव है। हिंदी सिनेमा को समझने के लिए इस प्रभाव के योगदान और महत्व को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। जवरीमल्ल पारख ने व्यापक शोध इस खंड के दोनों शीर्षकों में प्रगतिशील आन्दोलन, यथार्थवादी परम्परा और लोक चेतना को समाहित किया है। इस पुस्तक के शीर्षक 5 और 6 के विषय तो अलग से पढ़े जा सकते हैं।

मैं हर एक खंड के विषयों के विस्तार में नहीं जाना चाहूंगा। फिर भी यह बताना आवश्यक है कि यह पुस्तक मूल रूप से सचेत करती है कि सिनेमा का अध्ययन और मूल्यांकन साहित्यिक कृतियों की तरह नहीं करना चाहिए। हिंदी फिल्मों की समीक्षा और अध्ययन में यह अन्तर्निहित विडंबना है कि ज्यादातर गंभीर लेखक सिनेमा की कहानियों और पाठ को सर्वोपरि मानते हैं। वे सिनेमा के क्राफ्ट और उसके वैशिष्ट्य की अवहेलना करते हैं। नतीजतन नये समीक्षक और लेखक भी पाठ तक सीमित रहने में ही अपने कार्य को आइडियल समझते हैं। लेखक ने बार-बार सावधान करने के साथ हिदायत दी है कि सिनेमा माध्यम के कला पक्ष को मद्देनज़र रखना कितना ज़रूरी है। उन्होंने सिनेमा के कला और तकनीकी पक्ष पर भी सप्रसंग लिखा है। सिनेमा और साहित्य के अध्ययन के लिए यह पुस्तक पाठकों और शोधार्थियों को दृष्टिसंपन्न करती है। उनके सन्दर्भ के लिए चौथे खंड में विश्व, भारतीय और हिंदी साहित्य की कृतियों और उन पर बनी फिल्मों के उदहारण दिए गए हैं। लेखक दृश्यों और संवादों के उल्लेख के साथ उनके बारे में बताते हैं।

अगर इस पुस्तक को पढ़ने के साथ उल्लिखित फिल्मों को भी देखा जाए तो अधिक लाभ होगा।

पुस्तक : साहित्य, कला और सिनेमा अंतःसंबंधों की पड़ताल

लेखक : जवरीमल्ल पारख

प्रकाशक :  प्रकाशक- वाम प्रकाशन,

2254/2 ए, शादी खामपुर, न्यू रंजीत नगर,

नयी दिल्ली-110008; मूल्य: 750/

*(लेखक प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक, अनुवादक और यूट्यूबर हैं। सिनेमा पर कई पुस्तकें लिखी हैं। मुंबई में निवास। संपर्क[email protected] / [email protected] https://youtube.com/@ CineMahaul)

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