शैलेंद्र को अपने लोगों ने ही दिया धोखा, उसी से उनकी मौत हुई… बेटी अमला ने किया खुलासा

(गीतकारशैलेंद्र की बेटी अमला शैलेंद्र मजूमदार से संजीव श्रीवास्तव की बातचीत)

सवाल- आप महान गीतकार, कवि शैलेंद्र जी की पुत्री हैं। एक बेटी के नजरिए से अपने पिता और लोकप्रिय कवि शैलेन्द्र के बारे में क्या सोचती हैं, कैसे उन्हें याद करती हैं?

जवाब- यह तो कोई अलग-सा नहीं है। जैसे हर बेटी अपने पिता को प्यार करती है, याद करती हैं- वैसे ही मैं भी अपने पिता को याद करती हूं। उनकी यादों से प्यार करती हूं। उन्हें मैं भी बहुत मिस करती हूं। हां, एक बात जरूर है कि मैं आज भी अपने पिता से बात करती रहती हूं। इतने साल गुजर गए लेकिन उनकी कविताओं और गीतों के जरिए ऐसा लगता है हम उनसे मार्गदर्शन लेते रहते हैं। उनके गीतों को सुनकर उनके विचार हम ग्रहण करते हैं। इस प्रकार उनकी रचनाओं के माध्यम से उनका हमारा संवाद बना रहता है। उससे हम सीखते हैं, प्रेरणा लेते हैं। उससे अपनी जिंदगी को संवारते हैं। उनकी रचनाओं से हम सबको बहुत ताकत मिलती है। उनकी बेटी होने के नाते हमें यह अलग से सुविधा मिली है। इस पर हमें गर्व है।

सवाल – वैसे तो शैलेंद्र जी की सारी कविताएं और गीत लोगों को प्रेरित करने वाले हैं। लेकिन आप बताएं कौन-कौन सी कविताएं और गीत हैं- जिनसे आपको प्रेरणा और शक्ति मिलती हैं। आपके दिलों को छूती हैं।

जवाब – पोएम्स की अगर हम बात करें तो हमें यह कविता बहुत ही अच्छी लगती है। वह है- मैं अलस भोर की हल्की नीली रोशनी हूं जो छाया नहीं डालती परछाई नहीं छोड़ती… उस पोएम से मैं खुद को बहुत कनेक्ट करती हूं। एक और जो सब जानते हैं, वह है- तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं स्वर्ग है तो उतार ला जमीन पर। इसके अलावा एक और मुझे बहुत अच्छी लगती है कि ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन, ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन। हमारी लाइफ में जब भी कोई मुश्किल समय आता है तो हमें ये पंक्तियां हमारा धीरज बंधाती हैं, दिलासी देती हैं। इस तरह से हम अपने बाबा से जुड़े रहते हैं।

सवाल – आप दुबई में रहती हैं। इतने सालों से देश से बाहर हैं लेकिन आपकी हिंदी बहुत अच्छी है। शैलेंद्र जी की कविताएं आप इतनी सरलता से सुना लेती हैं, यह बहुत ही काबिलेतारीफ है। बहुत अच्छा लगता है कि आपने विदेश में रहकर भी उस परंपरा से खुद को जोड़े रखा है।

जवाब– वो तो रहेगा ही। आपके सवाल सुनकर बचपन की एक कहानी याद आ गई। हम सब भाई बहन कॉन्वेंट स्कूल में पढ़े थे। अंग्रेजी मीडियम स्कूल था। स्कूल में जोर दिया जाता था कि आपस में हमेशा अंग्रेजी में बात करते रहें ताकि अंग्रेजी बेहतर हो सके। इससे कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने के बाद एक आदत-सी बन जाती है ज्यादातर अंग्रेजी में बात करने की। हम सभी भाई बहन स्कूल से आते तो घर में भी अंग्रेजी में बातचीत करते थे। मुझे एक वाकया याद आता है। बाबा (पिता) उन दिनों एक हिंदी सम्मेलन में गए थे। हिंदी भाषा को लेकर वहां विचार विमर्श हो रहा था। उस दौरान डॉ. धर्मवीर भारती जैसे कई और नामी लेखक साहित्यकार आए थे। मुझे इस वक्त बहुत से लेखकों के नाम याद नहीं आ रहे हैं। तो कार्यक्रम समाप्त होने के बाद बाबा ने कई लेखकों को अपने घर डिनर पर बुलाया था। उस दौरान हम सभी भाई बहन अंग्रेजी में बातें कर रहे थे। बाबा तो वह अच्छा नहीं लगा। वो उन हिंदी के लेखकों के आगे खुद को शर्मिंदा महसूस कर रहे थे कि बाहर सम्मेलनों में तो हिंदी के प्रचार प्रसार पर भाषण देते हैं और घर में बच्चे अंग्रेजी में बातें करते हैं। डिनर के बाद जब सारे लेखक चले गए तो कल होकर बाबा ने नियम बना दिया कि बाहर चाह जितनी अंग्रेजी बोलो लेकिन घर में सबको हिंदी में ही बातचीत करनी है। उसके बाद से हमलोग घर में हिंदी में बातें करने लगे। तो बाबा की उस सीख का असर आज तक कायम है।

सवाल – गीतकार शैलेंद्र की बात हो और तीसरी कसम की चर्चा ना हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। उस फिल्म को बनाने के दौरान या बाद में जो परिस्थितियां बनीं, उसे देखते हुए क्या आपको लगता है कि तीसरी कसम बनाना उनकी गलती थी या दीवानापन?

जवाब – देखिए फिल्म बनाना गलती कभी नहीं हो सकती। उन्होंने वह फिल्म बनाई इसके लिए मुझे बहुत खुशी है। यह गर्व की बात है। लेकिन फिल्म के जरिए जो चीजें बाहर आई हैं, जिन लोगों पर उन्होंने भरोसा किया उन लोगों ने धोखा दिया उससे उनके दिल को बहुत ठेस पहुंची। फिल्म फाइनेंशियली अच्छी हो या ना हो उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता था बाबा को। बाबा बहुत ही गरीबी में पले थे। घर, गाड़ी, बंगला वगैरह उनके लिए कुछ मायने नहीं रखता था। उनके लिए लोग मायने रखते थे। जिन लोगों ने उन्हें धोखा दिया वह बहुत ही करीब के लोग थे। इसलिए मुझे लगता है कि जिन लोगों में उन्होंने अपना समय लगाया, जिन लोगों के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दिया उन्हीं लोगों ने उनको धोखा दिया। इससे ये लगता है कि उन्होंने गलत लोगों को अपना समय दिया। तीसरी कसम का यह दुखद पहलू है। बाबा इसी वजह से डिप्रेशन में भी गए। क्योंकि अपनों ने उनका धोखा दिया, फिल्म से उनका कोई नुकसान नहीं हुआ। फिल्म तो बहुत ही सुपर क्लासिक थी। सबसे बड़ी बात ये कि वो जिस तरह से बनाना चाहते थे, उन्होंने उसे फिल्म को उसी तरीके से बनाया। वह इतनी प्रसिद्ध हुई कि उसे नेशनल अवॉर्ड भी मिला, गोल्ड मेडल मिला। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है।

‘तीसरी कसम’ के एक दृश्य में राज कपूर और वहीदा रहमान

सवाल – क्या आप लोगों ने इस बात को लेकर कभी अध्ययन या विमर्श किया कि तीसरी कसम बनने में इतना लंबा समय क्यों लगा? वह एक साल के भीतर बन जानी चाहिए थी। लेकिन पांच-छह साल लग गए। क्या आपको नहीं लगता कि इससे फिल्म पक्ष के आर्थिक नुकसान से लेकर शैलेंद्र जी की सेहत को भी बड़ा नुकसान हुआ।

जवाब – नहीं। यह स्टडी करने का विषय नहीं है। इस पर विचार-विमर्श करने की कोई दरकार नहीं कि फिल्म बनने में देरी क्यों हुई। फिल्म में देरी के एक नहीं कई कारण हैं। असल में कुछ लोग उनका फायदा उठा रहे थे इसलिए यह कहना सही होगा इसी वजह से फिल्म बनने में देरी हुई। यह कहना कि किसी ने डेट नहीं दी कोई काम पर नहीं आया… यह सब गलत है, बिल्कुल गलत है। हम तो यह भी सोचते हैं कि आज इस मुद्दे पर इतनी गहराई में जाना भी अब ठीक नहीं। हम तो यही जानते हैं जब हम इस धरती पर आए हैं तो हमारे जाने की तारीख भी तय है। हमारा इस पर कोई जोर नहीं। जब हमें दुनिया को छोड़कर जाना है तो जाना है। उस तारीख तक आते आते जितनी कहानियां बनती हैं, बनती जाती हैं। कितना भी करें, जाने की तारीख कभी टलती नहीं है। आज हम इसी बात से खुद को दिलासा दिलाते हैं कि बाबा को जब जाना था तब गए। अब हम यह सोचें कि ऐसा होता तो क्या होता, इससे तो हम डिप्रेशन में पड़ जाएंगे।

सवाल – जी बिल्कुल सही बात है। लेकिन एक नामचीन और प्रतिभाशाली हस्ती को लेकर उनको चाहने वाले अपनी चर्चा कभी खत्म नहीं करते। लेकिन एक सवाल यह अक्सर सामने आता है कि जिस वक्त शैलेंद्र जी तमाम दुश्वारियों से गुजर रहे थे, उस वक्त उनके करीबी दोस्तों की ओर से कैसी पहल देखी गई?

जवाब – दोस्तों की ओर से काफी मदद मिली। राज अंकल आगे आए। उन्होंने बाबा को सलाह दी कि तीसरी कसम के अंतिम हिस्से में बदलाव करें। नहीं तो बॉक्स ऑफिस पर पिक्चर पिट जाएगी। उनका कहना था कि कहानी के अंत में अगर राज कपूर और वहीदा रहमान नहीं मिलेंगे तो फिल्म पिट जाएगी। पिक्चर और राज अंकल ने अपनी फिल्म आग का नजीर भी दिया और बताया कि देखिए वो पिक्चर पिट रही थी लेकिन हमने उसकी एंडिंग को चेंज किया फिर वह फिल्म चल गई। लेकिन बाबा नहीं माने। उनकी जिद थी की अगर तीसरी कसम बनाएंगे तो एक क्लासिक फिल्म बनाएंगे। उनका कहना था कि लेखक फणीश्वर नाथ रेणु ने जैसी कहानी लिखी है, हम उसी लाइन पर रहेंगे। यह बाबा की अपनी जिद थी। लेकिन ऐसा नहीं है फिर उनके दोस्त बाद में हमें छोड़कर चले गए। बाबा के जाने के बाद उनके दोस्त ही हमारे सामने आए। उन्होंने ही हमें संभाला। बाबा के बिजनेस हो या उनके सारे कामकाज, उन्हें सहेज कर मम्मी के हाथों में सौंपा।

सवाल – पिछले दिनों आकाशवाणी भवन में शैलेंद्र जी पर खास कार्यक्रम आयोजित किया गया था। जावेद अख्तर साहब को शैलेंद्र सम्मान मिला। आप और मनोज भैया तथा दिनेश भैया भी वहां मौजूद थे मंच पर। मनोज भैया ने उस दौरान कहा था कि बाबा के बारे में यह गलत लिखा जाता है कि वो आर्थिक संकट में थे। सचाई तो ये है कि बाबा एक और फिल्म प्लान कर रहे थे।

जवाब – उन्होंने बिल्कुल सही कहा कि बाबा के बारे में बहुत सी बातें गलत ढंग से प्रचारित की गई हैं। क्योंकि यह गलत बात कही जाती है कि आर्थिक संकट की वजह से बाबा की जान गई। उनकी जान उनके आस-पास के लोगों की वजह से गई थी। मनोज भैया ने कहा था कि जो लोग उनके आसपास थे, वह उन्हें धोखा दे रहे थे। मनोज भैया ने यह भी सही कहा था फणीश्वर नाथ रेणु की एक और कहानी पर बाबा फिल्म बनाना चाहते थे। इसकी उन्होंने घोषणा भी कर दी थी।

सवाल – शैलेंद्र जी गानों को सुनते हैं और आजकल के गाने जब सुनते हैं तो कैसा लगता है?

जवाब – आजकल के गानों में बहुत तरह का बदलाव आ गया है। एक चीज बताना चाहती हूं कि मैं आजकल के गाने सुनना पसंद नहीं करती। मैं गानों में शायरी ढूंढती हूं, थॉट ढूंढ़ती हूं वह हमें आजकल के गानों में नहीं मिलते। इसलिए हम इनको नहीं सुनते हैं। राइटर्स का कहना है कि लोग आजकल ऐसे ही गाने सुनना पसंद करते हैं इसलिए वो इस तरह के गाने बनाते हैं। लेकिन लोग कहते हैं कि राइटर्स अच्छे गाने नहीं लिख रहे हैं इसलिए इनको सुनना मजबूरी है। अब इनमें सही कौन है, कैसे कहा जाए। जहां तक मुझे लगता है कि हमें राइटर्स ही नहीं दिखते वैसे, जैसे कि पहले हुआ करते थे।

सवाल– तो क्या आजकल की नई फिल्में भी नहीं देख पाती होंगी।

जवाब – नहीं। मैं आजकल की फिल्में नहीं देख पाती हूं। मुझे समय ही नहीं मिल पाता। दूसरे कि मैंने बताया न कि मैं गानों में कविता खोजती हूं, विचारों की तलाश करती हूं। मुझे ना तो आजकल के गाने प्रभावित करते हैं और ना ही नई फिल्में। धन्यवाद।

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