द लास्ट मील : शहीद भगत सिंह के आखिरी पलों की भावुक कहानी

शॉर्ट फ़िल्म ‘द लास्ट मील’
शॉर्ट फ़िल्म ‘द लास्ट मील’

भगत सिंह के जीवन पर आधारित मनोज कुमार की शहीद से लेकर अब तक हिंदी सहित विभिन्न भाषाओँ में कई फीचर फिल्में बन चुकी हैं। हाल ही में किरण शंकर इन्दलिया फिल्म्स के बैनर तले आधे घंटे की शॉर्ट फ़िल्म ‘द लास्ट मील’ बनाई गई। यह फिल्म भगत सिंह का वह संदेश इतनी कम अवधि में दर्शकों के दिलों तक पहुंचाने में कामयाब है जिसे अक्सर नजरअंदाज किया जाता रहा। यह फिल्म भगत सिंह के जेल जीवन के उस प्रसंग पर आधारित है जिसमें भगत सिंह अपनी कोठरी के सफाई कर्मचारी भोगा, जिसे वे प्यार से बेबे कहते थे, उसे फांसी लगने से पहले उसके घर का सरसों का साग और मक्की की रोटी खाने की इच्छा जाहिर करते हैं। भोगा का वह मां जितना आदर करते थे। वे कहते थे तू मेरे वह सब काम करता है जो सिर्फ मां ही अपने बच्चे के लिए करती है। पंजाबी में बेबे मां को ही कहा जाता है। भोगा उनके लिए खाना लाता भी है किन्तु भगत सिंह तक पहुंचा नहीं पाता क्योंकि निर्धारित समय से ग्यारह घंटे पहले ही उन्हें फांसी दी जा चुकी थी। 

राघवेन्द्र रावत
राघवेन्द्र रावत*

इस दरम्यान के पूरे घटनाचक्र को बहुत ही संवेदनशील ढंग से लिखा गया है और उतनी ही संवेदनशीलता और कलात्मकता से फिल्माया भी गया है। फिल्म के संवाद मार्मिक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक प्रामाणिकता के साथ लिखे गए हैं। इस प्रसंग का चयन ही निर्देशक-निर्माता की दृष्टि को प्रदर्शित करता है और उसी भावना को स्क्रिप्ट लेखक रामकुमार, केतकी पांडे और प्रांजल आचार्य ने बहुत बेहतरीन अंदाज में बयां किया है जो दर्शकों के मन को छू लेता है। इस फिल्म का निर्माण शंकर इन्दलिया और अक्षत पांडे ने मिल कर किया है। सफाईकर्मी होने के कारण संकोच और समाज के डर और भगत सिंह के प्रति प्रेम की अनुभूति की अद्भुत अभिव्यक्ति इश्तियाक खान (भोगा) और उनकी पत्नी सारिका सिंह (रानो) ने जो अपने लाजवाब अभिनय से की है। आकाश दहिया ने भगत सिंह के चरित्र को बखूबी जिया है। इश्तियाक खान के चेहरे से करुणा, झिझक और बेबसी की भावाभिव्यक्ति मार्मिक है। आधे घंटे की फिल्म जहां एक ओर अपृश्यता, वर्ग भेद और जातिवाद के साथ-साथ साम्राज्यवाद के खिलाफ इंकलाब का नारा बुलंद करती है वहीँ दूसरी ओर आज़ादी के प्रति दीवानगी के जज्बे को प्रस्तुत करती है। निःसंदेह यह फ़िल्म मानवीय मूल्यों की स्थापना की कलात्मक कोशिश है।

कसी हुई स्क्रिप्ट, कुशल निर्देशन और सिनेमेटोग्राफी के जरिये ही बयासी वर्ष पहले के कालखंड को फिल्म में जीवंत दिखाना अपने आप में कमाल है| अभिलेख लाल का बैकग्राउंड स्कोर प्रभावी बन पड़ा है। फिल्म में रामप्रसाद बिस्मिल का अमर क्रांतिकारी गीत ‘सरफ़रोशी की तमन्ना…’ ही फ़िल्माया गया है। फ़िल्म का हर फ्रेम अर्थवान बन पड़ा है। फिल्म संपादन भी अच्छा किया गया है।

इस फिल्म की स्क्रीनिंग कुछ दिनों पहले जयपुर के प्रसिद्ध सिनेमा हाल राजमंदिर में आमंत्रित दर्शकों के लिए हुई तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह फ़िल्म सिने जगत में ऐसी हलचल मचाएगी। लेकिन उसके बाद अमेरिका में होने वाले DC south Asian Film festival में बेस्ट शॉर्ट फिल्म का ख़िताब जीता। उसके बाद दसवें स्मिता पाटिल फ़िल्म फेस्टिवल में निर्देशक केतकी पांडे को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का दूसरा पुरस्कार मिला। विन्ध्या अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म उत्सव में ऑडियंस चॉइस अवार्ड मिला। सोलहवें जयपुर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल यानी जिफ 2024 में इस फ़िल्म के लिए बेस्ट एक्टर लीड रोल (आकाश दहिया), बेस्ट डायरेक्टर अवॉर्ड (केतकी पांडे) तथा बेस्ट स्क्रीन प्ले लेखन का अवार्ड रामकुमार को ख़िताब घोषित किया जा चुका है। हाल ही में दसवें राजस्थान फ़िल्म फेस्टिवल में बेस्ट शॉर्ट फ़िल्म के लिए स्पेशल जूरी अवार्ड निर्माता शंकर इन्दलिया और निर्देशक केतकी पांडे को मिला है। फिल्म की पूरी यूनिट को बधाई।

*लेखक फिल्मों के जानकार हैं। नियमित समीक्षा लिखते हैं। जयपुर में निवास।

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