‘थ्री ऑफ अस’ हो या ‘किल्ला’…. बेमिसाल हैं इन फिल्मों में उजाड़ के सौंदर्य

'थ्री ऑफ अस' और 'किल्ला' फिल्म की तस्वीर
'थ्री ऑफ अस' और 'किल्ला' फिल्म की तस्वीर

हिंदी फिल्मों में लोकेशन शूटिंग से परहेज किया जाता है। ज्यादातर फिल्में आज भी स्टूडियो में ही बना ली जाती हैं। कृत्रिम मेधा के प्रचलन से आउटडोर दृश्यों को स्टूडियो में ही दर्शा देने का काम और आसान हो गया है। इसलिए जब भी किसी फिल्म में आउटडोर के जेनुइन दृश्य दिखाई देते हैं तो वह फिल्म इन दृश्यों के अनोखेपन के कारण ही याद रह जाती है। कहना न होगा कि आउटडोर लोकेशन पर, वह भी किसी पहाड़ी प्रदेश के सौंदर्य को दिखाने वाली, सबसे अच्छी फिल्म सत्यजित राय की ‘कांचनजंघा’ ही है। इसमें दार्जिलिंग के अप्रतिम सौंदर्य को सुब्रतो दा के कैमरे ने अमर कर दिया है।

मनमोहन चड्ढा
मनमोहन चड्ढा

हमारे फिल्मकार न जाने क्यों, आउटडोर लोकेशन पर शूटिंग करने से घबराते हैं। पहाड़ों का सौंदर्य तो सही जगह पर कैमरा रख देने से स्वयं ही अपना जादू बिखेर देता है। हालांकि सुजॉय घोष की फिल्म जाने-जान (2023) के बारे में कहा गया है कि इसकी लोकेशन कलिमपोंग है। हम देख पाते हैं कि दो तिहाई फिल्म स्टूडियो में शूट हुई है। लेकिन बाकी एक तिहाई में जहां पुलिस इंस्पेक्टर अपने पुराने मित्र नरेन व्यास का पीछा करता है। गीली-सीली पहाड़ी पगडंडियों के दृश्य बहुत खूबसूरत बन पड़े हैं।

इसी प्रकार ओवरहाइप्ड और अतिप्रशंसित फिल्म 12वीं फेल में भी एक दृश्य है, जब मनोज शर्मा अपनी प्रेमिका श्रद्धा के मसूरी के घर में जाता है। फिल्मकार ने बहुत खूबसूरती से चंद ही पलों में पूरी प्रामाणिकता के साथ इस यात्रा को दिखाया है। छोटा सा यह दृश्य अपनी लोकेशन शूटिंग के कारण यादगार बन गया है।

आइए आज हम प्रचलित जगहों- मसूरी, शिमला, कश्मीर की वादियों आदि को छोड़कर पश्चिमी भारत की खूबसूरत लोकेशन- कोंकण-की बात करें। थ्री ऑफ अस मुंबई में रहने वाली एक स्त्री शैलजा देसाई (शेफ़ाली शाह) की कहानी है। शैलजा धीरे-धीरे अपनी स्मृति खो रही है, डिमेंशिया की शुरुआत हो चुकी है। अब शैलजा अपने बचपन की स्मृतियों को पुनः जीना चाहती है। इसलिए वह अपने पति (स्वानंद किरकिरे) के साथ महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के वेंगुर्ला गांव में जाती है। इस बहाने हम भी इस हिंदी फिल्म में कोंकण के सौंदर्य को देख पाते हैं। इस क्षेत्र की सुंदरता को कैमरा में कैद करने की कोशिश कई मराठी फिल्मकारों ने की है, लेकिन युवा छायाकार-निर्देशक अविनाश अरुण हमें नए नज़रिए से इस प्राकृतिक सौंदर्य को दिखाते हैं।

यह फिल्म पूरी तरह से वास्तविक लोकेल पर शूट की गई है। इसमें तीनों अभिनयकर्मियों- शेफाली शाह, जयदीप अहलावत और स्वानंद किरकिरे ने उत्तम अभिनय किया है। कहानी में कुल एक सप्ताह का समय है। इसमें निर्देशक को कहानी के साथ, पात्रों के साथ और अभिनेताओं के साथ न्याय करना है। इसलिए जैसे ही शैलजा और दीपांकर वेंगुर्ला पहुंचते हैं तो उनकी खोजती हुई नजरों द्वारा हम इस कस्बे के सौंदर्य को देख पाते हैं। यह लगभग उजड़ा हुआ एक कस्बा है जो 1960 से 1980 के वर्षों में अवश्य ही जीवंत और गुलजार रहा होगा।

थ्री ऑफ अस का एक दृश्य
थ्री ऑफ अस का एक दृश्य

उदारीकरण के बाद के आर्थिक दबाव ने लोगों को अपने घरों में रहना मुश्किल कर दिया। इस स्थान के मूल निवासी भी अपने सुंदर घरों में नहीं रह पा रहे हैं। उन्हें मुंबई- पुणे जैसे महानगरों में रोजी-रोटी की तलाश में जाना पड़ता है। इसलिए इन घरों की देखभाल नहीं हो पा रही है। दीवारों पर घास उग आई है। छतों के खपरैल टूट गए हैं। जिस ढंग से अविनाश अरुण हमें यह लगभग उजड़ा हुआ कस्बा दिखाते हैं, उसमें सौंदर्य भी है और उदासी भी। उदासी तो इस पूरी फिल्म का मूल स्वभाव ही है। मेरी स्मृति में निकट अतीत में बिना कुछ कहे हुए, इतनी उजाड़ सुंदरता को इतने प्रभावी ढंग से दिखा देना किसी और फिल्म में संभव नहीं हो पाया है।

थ्री आफ अस मैं तीन-चार बार देख चुका हूं। इन फिल्मों की एक कमी तो रहती ही है कि पहली बार देखने पर आप इनकी भावुकता में खो जाते हैं। दूसरी बार देखने पर आप इस भावुकता से थोड़ा सा बचकर इन दृश्यों को भी देख सकते हैं जहां अभिनेता अनुपस्थित हैं। थ्री आफ़ अस में ऐसे कई दृश्य हैं। इन दृश्यों को देखने के बाद मुझे लगा कि क्या कभी महाराष्ट्र के इस कोंकण इलाके में छुट्टी मनाने के लिए नहीं जाया जा सकता? भले ही हम शैलजा की सी नॉस्टेल्जिक मन:स्थिति में न भी हों, तब भी यह कस्बा हमें खूबसूरत लगेगा। भारत में अभी भी इस प्रकार का इको टूरिज्म आरंभ नहीं हो सका है।

अविनाश अरुण की ही प्रथम फिल्म किल्ला (2014) भी बहुत अच्छी फिल्म है।  इसकी शूटिंग लोकेशंस भी लगभग यहीं-कहीं की हैं जो थ्री ऑफ अस की हैं। थ्री आफ़ अस फिल्म में तीन नामी स्टारों की उपस्थिति के कारण भी फिल्मकार को अधिक समय चेहरों पर फोकस करने में देना पड़ा है। इस फिल्म में संवादों पर भी बहुत अधिक जोर दिया गया है। लेकिन मराठी फिल्म किल्ला इन दबावों से अपेक्षाकृत मुक्त है। यह चार दोस्तों की कहानी है जो दस से तेरह वर्ष की उम्र के हैं और सातवीं-आठवीं कक्षा में पढ़ रहे हैं। आपको थ्री ऑफ अस का वह प्रसंग याद होगा, जब शैलजा और प्रदीप क्लास रूम में जाते हैं और इस बात पर उलझ जाते हैं कि यह सातवीं कक्षा थी या आठवीं? अर्थात थ्री ऑफ अस में जो स्मृति है। जिसकी सिर्फ बात हो रही है उसे दृश्यों के माध्यम से हम किला फिल्म में महसूस कर सकते हैं। क्योंकि रचनाकार वही है।

जाहिर है कि किल्ला फिल्म चार लड़कों की कहानी है। वहां लड़की अनुपस्थित है। यह संभव भी नहीं है क्योंकि फिल्मकार ने भी तब नहीं सोचा था कि वह एक दिन थ्री आफ़ अस फिल्म बनाएगा। इसे भी दुखद ही माना जाएगा कि एक बहुत अच्छी फिल्म बना देने के बाद भी, एक युवा फिल्मकार को दूसरी फिल्म मिलने के लिए दस साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। तो किल्ला (2014) मां और बेटे की कहानी है। लगभग तीस वर्ष की मां अरुणा और ग्यारह वर्ष का बेटा चिन्मय। पिता का कुछ समय पूर्व ही निधन हुआ है। मां एक उच्च सरकारी नौकरी में है, जहां उसे निरंतर दबाव का सामना करना पड़ता है। इस दफ्तर में जमीन की खरीद-फरोख्त की रजिस्ट्री का काम होता है। इस फिल्म में जो कार्यालय दिखाया गया है वह भी छोटा ही है लेकिन भ्रष्टाचार पर्याप्त है। अरुणा को लगभग मजबूर किया जाता है कि वह बिना एनओसी सर्टिफिकेट लिए ठेकेदार की जमीन के कागज स्वीकृत कर दे। बाद में उसे ही फंसा दिया जाता है और उसका तबादला सातारा जिले के दफ्तर में हो जाता है। पुणे जैसे सोने की खान तहसीलदार दफ्तर से सातारा जैसे दफ्तर में तबादले-के बीच के समय- की यह कहानी है। जिस प्रकार थ्री ऑफ अस में उजड़ा हुआ सा गांव दिखाकर यह फिल्मकार सार्थक टिप्पणी करता है। उसी प्रकार किल्ला में बिना शोर-शराबे के सरकारी कार्यालय में फैली रिश्वतखोरी और ईमानदार कर्मचारी को लगातार तंग करते रहने, उसे रास्ते से हटा देने के तरीकों को भी दर्शा देता है।

मां की अपनी परेशानियां हैं। उसे ईमानदार जीवन जीना है। अपनी नौकरी भी बचानी है। और नौकरी के दबावों को भी झेलना है। उसे पता है कि हर वर्ष इस शहर से उस गांव उसका तबादला होता रहेगा। बेटे की अपनी परेशानियां हैं। हर बार नई जगह पर उसे नए स्कूल में प्रवेश लेना होता है। नए दोस्त बनाने पड़ते हैं और जब तक दोस्ती पक्की होती है, उसकी मां का तबादला हो जाता है। नई जगह, नया स्कूल, नए दोस्त। वह भी इस सबसे तंग आ गया है। वह परिपक्व हो गया है। फिर भी है तो वह ग्यारह वर्ष का बालक ही। जिस प्रकार सत्यजित राय ने 1953 में पाथेर पांचाली की पहले दिन की शूटिंग की थी तो सबसे पहले काश के पौधों के बीच भटकते बच्चों के दृश्य को फिल्माया था। अपू अपनी रूठ गई बहन को खोज रहा है। बहन उसकी ओर गन्ने का टुकड़ा फेंकती है। इसी प्रकार अविनाश अरुण ने किल्ला फिल्म के लिए, सबसे पहले वह दृश्य फिल्माया जहां चिन्मय को उसके दोस्त छोड़कर चले गए हैं। वह सुनसान किले में अकेला है, घबराया हुआ और डरा हुआ है। मूसलाधार बारिश हो रही है।

फर्क 1953 और 2014 का है। जहां राय की दोनों बच्चे सीधे साधे थे। वहीं किल्ला के बालक चतुर हैं। अविनाश अरुण बताते हैं कि किस प्रकार चिन्मय उनके निर्देशों को तुरंत समझ जाता था और उसी के अनुरुप भाव उसके चेहरे पर आ जाते थे। कोंकण के किले में फिल्माया गया दृश्य बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। पांच मिनट का यह दृश्य आपको मजबूर करता है कि इस किले को जाकर देखा जाए। इस क्षेत्र में दस जून से जमकर बारिश होने लगती है। जून और जुलाई के महीने यहां घूमने के लिए आदर्श हैं। उत्तर भारतीयों और हिंदी भाषियों में यायावरी और घुम्मकड़ी का शौक बहुत कम है। वे केवल बहुत सुरक्षित, प्रचलित जगहों पर ही जाना पसंद करते हैं।

किल्ला फिल्म की तस्वीर
किल्ला फिल्म की तस्वीर

बहरहाल अविनाश अरुण की प्रथम फिल्म किल्ला अवश्य देखी जानी चाहिए। मैं तो कहूंगा कि किल्ला अद्भुत फिल्म है और थ्री ऑफ अस एक बहुत अच्छी फिल्में है। किल्ला में मां की भूमिका अमृता सुभाष ने की है। उनका अभिनय बहुत जानदार बन पड़ा है। उन्होंने सुमित्रा भावे की मराठी फिल्म अस्तु में लाजवाब अभिनय किया है। वहां वह हाथी संभालने वाले महावत की पत्नी बनी हैं। अस्तु फिल्म थ्री ऑफ़ अस से आगे का पड़ाव है। थ्री ऑफ अस में मुख्य पात्र में स्मृति को खोने की प्रक्रिया अभी आरंभ ही हुई है। जबकि अस्तु फिल्म में वह पूर्णरूप से डिमेंशिया का शिकार होकर अल्जाइमर की स्थिति में पहुंच चुका है। यह भूमिका मोहन अगाशे ने निभाई है। यहां मैं अरुण खोपकर की मराठी फिल्म कथा दोन गणपतरावांची को याद करना चाहूंगा।

थ्री ऑफ अस में कथा समय एक सप्ताह का है। किल्ला यही कथा समय लगभग एक वर्ष का है। इसलिए उसमें हम उन स्थानों की छटायें अलग-अलग रोशनी में देख पाते हैं। कथा दोन गणपतरावांची में कथा समय दो वर्ष का है। अरुण खोपकर ने इन दो वर्षों में बदलती ऋतुओं को बहुत खूबसूरती से दिखाया है। दो दोस्त, जो पक्के दोस्त ही नहीं हैं, आपस में खूंखार दुश्मन भी हैं। यह हास्य फिल्म उनकी नोंकझोंक पर आधारित है। संवाद आदि कुछ कम भी समझ में आएं तो फिल्म अपनी खूबसूरती के लिए देखी जा सकती है। यह फिल्म भी आपको कोंकण यात्रा के लिए प्रेरित कर सकती है।

अंत में देहरादून के प्रिय शायर हरजीत सिंह का शेर- खुशबू रंग परिंदे पत्ते बेलें दलदल जिसमें थे / उस जंगल से लौट के पाया हमने खुद को ताज़ा और।

*(लेखक प्रसिद्ध फिल्म इतिहासकार हैं। सिनेमा पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। देहरादून में निवास।)

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