जिन हीरामंडी नहीं देख्या… वो सिनेमा प्रेमी ही क्या…! चालीस के दशक के लाहौर की वो कहानी…

'हीरामंडी' का पोस्टर

इन दिनों वेब सीरीज में हीरामंडी की खूब चर्चा है। जिन्होंने कम से कम इसके ट्रेलर को देखा होगा, उन्हें इस बात का अंदाजा हो गया होगा कि संजय लीला भंसाली ने इसके हर फ्रेम में कविता पिरोने की कोशिश की है। यह एक प्रकार से सूफीवाद और उर्दू ग़ज़लों के प्रति संजय लीला भंसाली के विशेष प्रेम की निशानी है। फिल्म में वसंत ऋतु का संदेश देने वाला गीत अमीर खुसरो की कविता से लिया गया है,जबकि इसमें गालिब, मीर, जफर और नियाजी की प्रशंसा है।

यहां आलमज़ेब (शर्मिन सहगल), एक महत्वाकांक्षी कवयित्री है। उसके संवाद छंदों की तरह खुलते हैं। जिसमें चंचलतापूर्वक आवेग है। वह कहती है- “मैं तुम्हें नाश्ते में दोहे और दोपहर के भोजन में कविताएं परोसूंगी।” आलमज़ेब मल्लिकाजान (मनीषा कोइराला) की छोटी बेटी है, जिसका हीरामंडी में शासन है।

भंसाली की दुनिया में हीरामंडी लाहौर का कुख्यात रेड लाइट एरिया भर नहीं है, बल्कि एक ऐसा परिसर है जहां संस्कृति, संगीत, शिष्टाचार, प्रेम करने की कला, बातचीत का सलीका और भी बहुत कुछ सिखाया जाता है। बेशक नवाब यहां तवायफों के साथ हमबिस्तर होते हैं। लेकिन यही यहां का एकमात्र उपक्रम नहीं है। मर्यादा, तहजीब का भी माहौल है।

यह सीरीज सन् 1920 से 1940 के दशक में भारत छोड़ो आंदोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित है। यहां विदेशी छोड़ो, स्वदेशी अपनाओ का नारा भी है। ऐसा दिखाया गया है कि लाहौर के अमीर नवाबों को देश भर में फैली क्रांतिकारी लहर की कोई परवाह नहीं थी। वे धन और शक्ति हासिल करने के लिए अंग्रेजों का पक्ष लेने में व्यस्त थे। विडंबना यह है कि हीरामंडी की तवायफें आगे बढ़ती हैं और समाज में संतुलन लाती हैं।

हीरामंडी में दो धाराएं समानान्तर चलती हैं। विभिन्न वेश्याओं की अलग दुनिया है और मल्लिकाजान और फरीदन की साज़िश। दोनों एक-दूसरे पर वर्चस्व हासिल करने के लिए तमाम तकनीकों का उपयोग करते हैं। वहीं दूसरी ओर क्रांतिकारियों को लगातार अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए भी दिखाया गया है। तो एक तरफ साज़िश और दूसरी तरफ राष्ट्रवाद। ऐसे परिदृश्यों को मिलाना आसान नहीं है, लेकिन यहां इसका श्रेय भंसाली को जाता है। वह आत्मविश्वास के साथ इसका मिलान करने में सक्षम होते हैं।

यह एक चरमोत्कर्ष की ओर ले जाता है जो पद्मावत के अंत के विपरीत है। वहां सैकड़ों महिलाओं ने मिलकर जौहर किया। यहां सैकड़ों महिलाएं जलती मशालें लेकर दुश्मन की ओर मार्च करती हैं और आजादी के गीत गाती हैं।

एक स्तर पर हीरामंडी मुगल-ए-आज़म (1960) और पाकीज़ा (1972) जैसी फ़िल्मों की भंसाली की स्तुति है। सेट डिज़ाइन की अपार भव्यता, विशेषकर कोठों और हवेलियों की भव्यता आपकी सांसें रोक लेती है। पोशाक, प्रोडक्शन और संयोजन आपको महसूस कराता है कि आप वास्तव में दूसरे युग में पहुंच गए हैं। उर्दू संवाद में पुरानी दुनिया का आकर्षण है। लाहौर में पंजाबी बहुसंख्यकों की भाषा थी और आज भी है लेकिन नौकरों और एक-दो सिख किरदारों के अलावा बाकी कोई भी किरदार पंजाबी नहीं बोलता। सुदीप चटर्जी, महेश लिमये, हुएनस्टैंग मोहपात्रा, रागुल धारुमन ने बेहतरीन सिनेमैटोग्राफी पेश की है। ट्रैकिंग शॉट्स, ट्रॉली का इस्तेमाल और बेहतरीन लाइटिंग गुरु दत्त ब्रांड के सिनेमा की याद दिलाती थी।
सीरीज संगीतमय है।  भंसाली प्रोडक्शन के सभी विभागों ने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। बेहतरीन गाने हैं। डांस कोरियोग्राफी बेहतरीन है, लेकिन वह उस तरह उभरकर सामने नहीं आती, जैसी आमतौर पर भंसाली की फिल्मों में होती है। हम यही कह सकते हैं कि भंसाली को सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति की जैसे आदत है। वह यहां भी बेहतरीन फॉर्म में हैं।

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